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________________ यह तो प्रत्यक्षरूप से व्यवहृत होता है आकाश और परमाणु कैसे अनित्य या क्षणिक सिद्ध होंगे? संभव ही नहीं है। क्या उन बेचारे अज्ञानी गुरु को पदार्थों की यथार्थता का भी ज्ञान है ? कि संसार में कितनी किसम के पदार्थ हैं? १) अनुत्पन्न और २) उत्पन्नशील, ३) अविनाशी और ४) विनाशी रूप चारों प्रकार के पदार्थों का अस्तित्व जगत् में है। इन दोनों में प्रथम दो में भूतकालिक दृष्टि से विचार किया जाता है और दूसरे दो ३, ४ थे भेदवालों को भविष्यकालीन दृष्टि से देखा जाता है। इन दोनों को मिलाकर विचार किया जाय तो १) अनुत्पन्न-अविनाशी, और २) अनुत्पन्न–विनाशी ३) उत्पन्न- अविनाशी और ४) उत्पन्न-विनाशी ऐसे ४ प्रकार बनते हैं । अर्थात् संसार में चार किसम के पदार्थ हैं। १) अनुत्पन्न-अविनाशी पदार्थ- जो कभी भी उत्पन्न होते ही नहीं हैं और पुनः नष्ट भी होते ही नहीं है । जैसे १) धर्मास्तिकाय २) अधर्मास्तिकाय, ३) आकाश, ४) आत्मा आदि प्रकार के द्रव्य न तो कभी उत्पन्न ही होते हैं और न ही कभी नष्ट होते हैं, सवाल ही नहीं अतः पदार्थ का अस्तित्व तीनों काल में रहता है । अब ऐसे पदार्थों को “सर्व शून्यं" कैसे कहना? और यदि अपने शून्य के सिद्धान्त की परिधि में नहीं बैठता है तो साफ ना ही कह देना कि हम ऐसे पदार्थों को मानते ही नहीं है । यह कैसा तरीका ढूँढ निकाला है ? जो पदार्थ जैसा है उसे उसके वास्तविक यथार्थ स्वरूप में मानना ही जो सम्यग्दर्शन था उसके बजाय पदार्थ की यथार्थता को न्याय न देकर अपनी मानी हुई मान्यता को न्याय देना, न्याय संगत बताना और उसके आधार पर पदार्थ जैसा नहीं भी है उसको वैसा मान लेना यह कितना भारी मिथ्या ज्ञान और मिथ्या दर्शन है । ऐसे मिथ्यादर्शन को गधे की पूंछ की तरह पकंडकर रखना चाहे भले ही गधे की लात खाते रहें फिर भी पक्कड नहीं छोडनी। मिथ्यात्व के साथ कषाय ज्यादा मात्रा में है इसलिए पक्कड ज्यादा ही रहेगी। यह स्वाभाविक है। उत्पन्नशील एवं विनाशी स्वभाववाले संसार के पौद्गलिक–भौतिक सेंकडों पदार्थ हैं । जो रोज कितने ही बनते हैं, उत्पन्न होते हैं और पुनः नष्ट भी होते ही रहते हैं। लेकिन उन्हें भी शून्य शब्द से अभावात्मक गिनना कि अस्तित्वयुक्त गिनना? या सिर्फ अनित्य ही कहते रहना? आत्मा जैसे त्रैकालिक शाश्वत पदार्थ को सर्वथा एकान्तिक अनित्य ही कहना कहाँ तक उचित है ? दूसरी तरफ यह भी सोचिए कि आप एकान्त अनित्य ही अनित्य कहते रहेंगे, पर्याय जो परिवर्तनशील है इस दृष्टि से उसके उत्पाद–व्यय स्वरूप को ही एकान्तरूप से मानमा लेकिन मूलभूत द्रव्य के रूप में पदार्थ को मानना कि नहीं? ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास" ९८३
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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