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________________ मिथ्यात्वी की संगत कभी न करें जैसा संग वैसा रंग । सोबत के आधार पर असर होती है । कौए की संगत से हंस भी बिगड जाते हैं । जैसे एक जौहरी चोर-गुण्डा-डाकू-लुटेरों की संगत-मित्रता कभी भी नहीं करता है। उनके साथ बैठने उठने का व्यवहार भी नहीं रखता है। दुष्टों के साथ की संगत-मित्रता से जौहरी के लाखों-करोडों की कीमत के रत्नों के जाने का, चोरी होने का, नुकसान का पूरा भय रहता है । अतः समझदार जौहरी भूल से भी उनकी संगत-मित्रता कभी नहीं करता है । ठीक उसी तरह एक सम्यक्दृष्टि जीव को भी समझना चाहिए किसम्यक्त्व नामक एक कीमती रत्न उसे प्राप्त हुआ है । अनन्त भूतकाल से जो कभी प्राप्त नहीं हुआ था, ऐसा सम्यक्त्व नामक रत्न अनन्तगुनी मेहनत अपूर्वकरणादि आत्मा की लब्धियों-शक्तियों के स्फुरण से प्राप्त हुई है । अतः सामान्य बात नहीं है। ऐसे कीमती रत्न की प्राप्ति होने के बाद यदि सम्यक्त्वी जौहरी की तरह सावधान जागृत न रहे, और मिथ्यात्वी जीवों की संगत में रहे, यदि उनके साथ मित्रता आदि का व्यवहार भी करे तो मिथ्यात्वी के विचारों की असर–वैसी छाप अपने मानस पर जीव लेकर आता है। - . मिथ्यात्वीं कैसा होता है, उसके आचार और विचार कैसे होते हैं इसका स्वरूप पीछे देख आए हैं। अतः मिथ्यात्वी का बाह्याभ्यन्तर स्वरूप अच्छी तरह समझ लेना अत्यन्त आवश्यक है । नितान्त अनिवार्य है । इससे दो फायदे हैं । एक तो मैं स्वयं वैसे लक्षणवाला हूँ या नहीं? इस तरह अपनी स्वयं की परीक्षा करके अपने आप को भी पहचान सकते हैं? यदि मैं खुद ही मिथ्यात्वी हूँ तो मुझे अब सम्यक्त्व प्राप्त करने के लिए आसमान-जमीन एक करनी चाहिए। किसी भी कीमत पर सम्यक्त्व प्राप्त करना ही चाहिए । हर हालत में सम्यक्त्व रत्न प्राप्त करके ही शांति की श्वास लेनी चाहिए। इसके लिए यथाप्रकृतिकरण अपूर्वकरण आदि करण अर्थात् आत्मशक्तिविशेष का स्वरूप समझकर शीघ्र करने के लिए भगीरथ पुरुषार्थ करना ही चाहिए। दूसरी तरफ दूसरा फायदा यह है कि... मिथ्यात्व का स्वरूप-लक्षणादि देखने पहचानने से आत्मविश्वास दृढ हो जाता है कि मैं वैसा नहीं हूँ। मैं मिथ्यात्व की विचारधारावाला नहीं हूँ। वैसे आचार, वैसी वाणी, वैसे व्यवहारवाला भी नहीं हूँ। तो मुझे आत्मविश्वास संतोष का अनुभव होता है । मन में मानसिक शान्ति होती है । मेरे पास सम्यग् दर्शन रूप कीमती रत्न है । मैं रत्न धारक जौहरी हूँ । ऐसी समझ बढती है और इससे मुझे मेरी जिम्मेदारी का ख्याल आता है । ऐसे कीमती रत्न के प्रति मुझे कितना सजग प्रहरी–कितना वफादार रहना चाहिए? इसका स्पष्ट ख्याल आता है। "मिथ्यात्व" - प्रथम गुणस्थान ४३१
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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