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________________ बंधस्थिति बांधना ही न पडे । यह और ऐसी सारी अवस्थाएं जीव मिथ्यात्व के प्रथम गुणस्थान पर ही कर लेता है । टेस्ट मेच तो खेलेगा तब खेलेगा परन्तु उसके पहले क्रिकेट खेलने की सारी प्रक्रिया उस ग्राउण्ड पर होती है । इसी तरह जीव सम्यक्त्व की सारी तैयारी मिथ्यात्व के घर में रहकर ही करता है अतः मिथ्यात्व की प्रथम गुणस्थान के रूप में गणना की है। मिथ्यात्वी कैसा होता है? मिथ्यात्व के उदय से ग्रस्त मिथ्यात्वी जीव भी भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं । इसमें कारणभूत मिथ्यात्व की मात्रा का कम ज्यादा होना है। जैसे दूध में शक्कर कम-ज्यादा-ज्यादातर इत्यादि प्रमाण में होने से दूध भी कम-ज्यादा-प्रमाण में मीठा होगा। ठीक उसी तरह मिथ्यात्वी जीव में मिथ्यात्व की मात्रा की तरतमता जितनी कम-ज्यादा प्रमाण में रहेगी उस हिसाब से जीव तीव्र, गाढ या मन्द मिथ्यात्वी कहलाएगा। ऐसे मिथ्यात्व के उदय से ग्रस्त मिथ्यात्वी जीव कैसे होते हैं ? उनके लक्षण कैसे होते हैं? इत्यादि समझने के लिए लक्षणों की पहचान के कुछ प्रकार यहाँ प्रस्तुत करता हूँ, जिसे समझकर मिथ्यात्वी जीव को पहचानने में सरलता आ सके और आगे फिर उनकी संगत से बचा भी जा सकता है। ___जो परभव–पुनर्जन्म, कर्म सिद्धान्त और जीव का अनादि अस्तित्व ही नहीं मानता है । १८ प्रकार के पापों को भी मानने के लिए तैयार नहीं है । ८ प्रकार के कर्मों को भी मानता नहीं है। कर्मों के बंध-उदय-सत्तादि को मानने की कोई बात ही नहीं है । जो सुदेव-सुगुरु-सद्शास्त्र-सुधर्म को मानने के लिए तैयार ही नहीं है, उन पर श्रद्धा रखने के लिए भी तैयार नहीं है, उल्टा कुदेव-कुगुरु-रागी-द्वेषी देव-देवियों को भगवान मानता है, उन पर ही श्रद्धा रखता है और मात्र दुःखनिवारक सुखदाता संकट-विघ्ननाशक, तथा इच्छानुसार फलदाता मानकर चलता है। भगवान और गुरु को सुख के साधनरूप कारक मानकर उनका उपयोग उसी के लिए करता है, जिनेश्वर वीतरागी को भगवान मानने के लिए तैयार नहीं है और उनकी आज्ञा रूप धर्म भी यथार्थ रूप से आचरण में उतारने के लिए तैयार नहीं है। आत्मा-परमात्मा, लोक-अलोक, स्वर्ग-नरक, पुण्य-पाप, कर्मबंध-मोक्ष, पूर्वजन्म-पुनर्जन्म, आश्रव-संवर, तथा मोक्ष-अपवर्ग आदि तत्त्वों को होते हुए भी यथार्थ स्वरूप में मानने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं है । नास्तिक होता है मिथ्यात्वी । अतः तत्त्वभूत किसी पदार्थ का अस्तित्व होते हुए भी मानने के लिए "मिथ्यात्व" - प्रथम गुणस्थान ४२७
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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