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होता है और अन्त में एक व्यक्तिविशेष का घर होता है, घर में भी एक कमरा छोटा होता है । और कमरे में भी एक कोना छोटा होता है । इस तरह सबसे छोटा सूक्ष्मतम एक परमाणु होता है । अतः बड़े से छोटे के क्रम में देखने पर.... विस्तार कम - कम... . हो जाता है । ठीक इसी तरह आत्मिक अध्यवसायों पर आधारित मिथ्यात्व की मात्रा भी कम ... कम . तथा उल्टे क्रम से अधिक-अधिक होती ही जाती है । ऐसा स्पष्ट दिखाई देता है ।
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आखिर मिथ्यात्व को गुणस्थान क्यों कहा ? -
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मिथ्यात्व की व्याख्या समझने के बाद मिथ्यात्वी जीव कैसा होता है यह स्पष्ट ख्याल में आ जाता है । यहाँ सामान्य मानवी के मन में एक शंका जरूर उठ सकती है कि..... जब जीवों में इतना गाढ मिथ्यात्व है, मिथ्यात्व के तीव्र उदयवाले हैं, सर्वथा श्रद्धारहित एवं विपरीतवृत्तिवाले हैं तो फिर इसे प्रथम गुणस्थान क्यों कहा ? १४ गुणस्थान बताए हैं । जहाँ और जिन स्थानों में आत्मा के गुणों का विकास होता है या आत्म गुण प्रगट होते हैं इसे तो गुणस्थान कहना उचित - योग्य है, परन्तु मिथ्यात्व तो कोई आत्म गुण नहीं है । यह तो मोहनाय कर्म की २८ प्रकृतियों में मिथ्यात्व मोहनीय नामक एक कर्म प्रकृति है । इसके उदय से मिथ्यात्व प्रगट होता है और परिणाम स्वरूप जीव वैसा मिथ्यात्वी कहलाता है । ऐसे मिथ्यात्व के उदय में जीवों की वृत्ति-मति सर्वथा विपरीत - उल्टी होती है । अतः आचार-विचार-व्यवहार - वाणी - वर्तन - मान्यता सभी उल्टे - विपरीत होते हैं । तो फिर प्रश्न यह उठता है कि मिथ्यात्व को पहला गुणस्थान क्यों कहा ?
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प्रश्न के हेतु - कारणादि देखने पर बात बिल्कुल सही लगती है । लेकिन महापुरुषों के—जैन शास्त्रों के द्वारा दिये गए समाधान इससे भी ज्यादा युक्तिसंगत लगते हैं । उदाहरण के लिए घने काले घनघोर बादलों के चारों तरफ छा जाने से सूर्य मध्यान्ह में भी छिप जाता है । दृष्टिगोचर ही नहीं होता है । और सामान्य लोग “रात्रि" जैसा आरोपण करके व्यावहारिक भाषा का प्रयोग करते हुए बोलते हैं कि अरे ! दोपहर में ही रात हो गई । लेकिन सचमुच अमावस्या की अंधेरी रात कहाँ और दोपहर को सूर्य के ढक जाने से होनेवाला अन्धेरा कहाँ ? क्या दोनों समान स्वरूप हैं ? जी नहीं । कितने भी घने गाढ काले मेघों से सूर्य आच्छादित होने के पश्चात भी सूर्यप्रकाश की आभा, प्रभा रहती है, वह दिन का ज्ञान कराती है। ठीक इसी तरह जगत के गाढ से गाढ मिथ्यात्वी जीवों में भी सामान्य सत्यांश का अंशमात्र बोध तो होता ही है । यह मनुष्य है, यह पशु है, यह जंड है, यह बच्चा है, यह पत्थर है इत्यादि स्थूलरूप से सामान्य बोध जो अंश मात्र भी है इतना
" मिथ्यात्व " - प्रथम गुणस्थान
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