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ज्ञान के सामने इसका कोई प्रमाण–प्रभाव कुछ भी नहीं रहता है । परन्तु रात्रि के अन्धकार में इस तृणाग्नि का अस्तित्व जरूर रहता है, जो लाल दिखता है। यह प्रकाश फैलाकर दूसरी वस्तुओं को प्रकाशित कभी भी नहीं कर सकता है । परन्तु स्वयं प्रकाशित जरूर रहता है । यहाँ से प्रकाश का अंशमात्र रूप से प्रारंभ जरूर है । कालान्तर में बढता जाएगा।
ओघदृष्टि में जो जीव वैषयिक पौगलिक सुख की लालसावाली बुद्धि बनाकर धर्म कर रहा था। अब मित्रा दृष्टि का प्रथम सोपान चढने से ओघदृष्टि की यह भवाभिनंदिता की बुद्धि सर्वथा बदल गई । लक्ष्य बदल जरूर गया है । परन्तु अभी भी आत्मा का ही पूर्ण लक्ष्य जगा नहीं है । फिर भी सन्मुख होने की भूमिका बन रही है । यह धीरे-धीरे आगे बढता जाएगा। जागृति जरूर आएगी।
___ धीरे-धीरे का उदाहरण देते हुए स्पष्ट करते हैं कि जैसे किसी सोए हुए व्यक्ती को उठाने में ४-५ आवाज लगाई और पाँचवी आवाज में वह उठा, तो पहली आवाज में क्या हुआ? कुछ भी उसके कान पर टकराया या नहीं? हाँ, टकराया जरूर, परन्तु जागृति नहीं आई, फिर भी जागने की भूमिका बनी । जैसे पहला पत्थर फेंकने पर आम गिरा नहीं, भले ही आम २० वें पत्थर से गिरा, फिर भी पहले पत्थर से ही भूमिका जरूर बन गई। निशाना जरूर बनना शुरु हुआ है । ठीक वैसे ही मित्रा दृष्टि में साधक की दिशा जरूर बनने लगी है। भले ही भाव नहीं बने, फिर भी द्रव्यरूप उस क्रिया में ओघ दृष्टि की वृत्ति की गंध नहीं आती है। इतना परिवर्तन जरूर आया है। अब दर्शन-वंदन पूजादि की धर्मक्रिया भावविहीन होने पर भी द्रव्य क्रिया मात्र रहकर भी भावोल्लासरहित–परिणाम-लक्ष्य विहीन जरूर है, परन्तु आगे के भावि की प्राप्ति की सूचक शुरुआत है । पिता के साथ सामायिक करने बैठे दो वर्ष के बच्चे जैसी स्थिति है इसकी। इस मित्रा दृष्टि का बोध प्रकाश तृणाग्नि की तरह कार्यकारण काल तक भी टिकनेवाला नहीं है । जल्दी बुझ जाता है । इष्टकार्यसिद्धि नहीं कर सकता है । बोध की अल्पता के कारण धर्मबीजों का संस्कार भी बना नहीं सकता है । काल कम है । प्रकाश (ज्ञान) भी काफी कम है। आगे की दूसरी तारा दृष्टि तक पहुँचने में सहायक बनता है।
२) तारा दृष्टि
तारायां तु बोधो गोमयाग्निकणसदृशः। अयमपि एवं कल्प एव, तत्त्वतो विशिष्टस्थितिवीर्यविकलत्वात्, अतोऽपि प्रयोगकाले स्मृतिपाटवासिद्धेः । तदभावे प्रयोगवैकल्यात् ततस्तथा तत्कार्याभावादिति ।
"मिथ्यात्व" - प्रथम गणस्थान
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