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उपरोक्त चित्र में दर्शाए अनुसार जीव अनादि कालीन–मिथ्यात्व की स्थिति में ओघदृष्टि में भवभ्रमण करता ही रहा। धर्म मिला तो भी धर्म का सही अर्थ में उपयोग नहीं कर सका । धर्म से मोक्ष प्राप्ति हो सकती थी, उसके लिए निर्जरा करते हुए कर्मक्षय करना चाहिए परन्तु ओघदृष्टि में जीवलोभ-लालसा के अधीन हो गया । भवाभिनंदी बन गया। संसार के सखों की प्राप्ति के लोभ में गिर गया। परिणाम स्वरूप धर्म का उपयोग एकमात्र सांसारिक सुख-भोगों की प्राप्ति के लिए ही करने लगा। इसी ओघदृष्टि की वृत्ति के कारण धर्म मिलने के बाद वह निर्धारित परिणाम रूप मोक्ष का फल नहीं पा सका, निर्जरा करके कर्मक्षय नहीं कर सका और तुच्छ क्षणिक वैषयिक- पौद्गलिक इहलौकिक-परलौकिक सुख-भोगों में ही लिपटा रह गया। आसक्त रह गया। परिणामस्वरूप कुछ पाया भी सही और उसमें ही मशगूल रहकर भव-संसार चलाने लगा। इस तरह ओघ दृष्टि में ही अपरिमित काल जीव ने बिता दिया।
- ओघ दृष्टि में से बाहर निकलकर योग दृष्टि में लाने के लिए...योग दृष्टि के आठ दृष्टि के मार्ग पर जीव को चढाना पडेगा। योग दृष्टि की इन ८ दृष्टियों की सीढि के एक-एक सोपान चढते-चढते जीव को बोध का प्रमाण भी बढता जाएगा। ज्ञान का क्षेत्र, प्रकाश का विस्तार भी बढता जाएगा। इन ८ योगदृष्टियों में प्रथम की मित्रादि ४ दृष्टियाँ मिथ्यात्व की दृष्टियाँ हैं । इन आठों दृष्टियों को समझने के लिए जो प्रकाश के दृष्टान्तों से उपमा दी है वह बहुत ही सार्थक दी है। इनमें प्रकाश की स्थिरता, प्रमाण, काल, क्षेत्र, तीव्रता अधिकतमता आदि सबका विचार किया है।
आठों दृष्टियों की उपमा जो तृणादि के साथ दी गई है उनमें प्रकाश की समानता दिखाई है। सभी धर्मों की सादृश्यता नहीं लेनी है। उदा. दाहकतादि की समानता नहीं लेनी है । साधर्म्य प्रकाश के साथ है । प्रकाश न्यूनाधिक है । उसी तरह बोध भी न्यूनाधिक होता है । घास के तिनके को जलाने पर उसका प्रकाश कितना फैलेगा? तिनका जलता हुआ पड़ा रहेगा, दिखाई देगा परन्तु उसका प्रकाश नहीं फैलेगा। इससे थोडा ज्यादा गोबर के छाणे का प्रकाश रहेगा । यद्यपि गोबर का छान जलता हुआ दिखाई देगा परन्तु उसके प्रकाश में हम लिख-पढ नहीं सकेंगे। इससे आगे-काष्ठाग्नि के प्रकाश का प्रमाण जरूर बढा है। लकडी का कोयला जलता है या लकडी ही जलती हो तो उसके प्रकाश का प्रमाण ज्यादा फैलता नहीं है कि जिसमें पढ़ने लिखने आदि का कार्य किया जा सके। हाँ, इससे कुछ ज्यादा प्रकाश दीपक की ज्योति का होता है । इससे ज्यादा प्रकाश रत्न का होता है । यहाँ तक के चारों का प्रकाश स्थिर नहीं था, स्थायी नहीं था। लेकिन स्थिर दृष्टि से प्रकाश
"मिथ्यात्व" - प्रथम गुणस्थान
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