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ही है उसके लिए आँख साधनभूत इन्द्रिय है। आँख आत्मा को ज्ञान पहँचाती है। अतः इसे ज्ञानेन्द्रिय कहते हैं । इन आँखों से दिखाई देगा, आँखें मात्र साधनभूत रहेगी। परन्तु देखने की क्रिया करनेवाला तो अन्दर चेतनात्मा ही है। देखनेवाला ज्ञानवान् चेतनात्मा है। इसीलिए हम भाषा के प्रयोग में भी स्पष्ट बोलते हैं कि- आखों से देखते हैं, आँखे देखती है ऐसा नहीं कहते हैं । इसलिए "से" का प्रयोग आँखों से अलग-स्वतंत्र देखने की क्रिया करनेवाले आत्मा को सिद्ध करता है । आँखें जो चाइन्द्रिय कहलाती है ये देखकर आत्मा को ज्ञान पहुँचाती है । इस देखने की क्रिया में प्रकाश सहायक बनता है । जितना प्रकाश कम ज्यादा होगा उस प्रमाण में वस्तु का बोध स्पष्ट अस्पष्ट होगा।
ठीक वैसा ही ८ दृष्टियों का कार्यक्षेत्र है । इनका अपना-अपना प्रकाश कम-ज्यादा प्रमाण में है । योगदृष्टि समुच्चय ग्रन्थकार महर्षि पू. हरिभद्रसूरि महाराज बता रहे हैं
तण-गोमय-काष्ठाग्नि-कण-दीप-प्रभोपमा।
रत्नतारार्कचन्द्राभा सदृष्टे दृष्टिरष्टधा ।। १) मित्रा दृष्टि में ज्ञान-प्रकाश-अर्थात् बोध तिनके की अग्नि के कण जितना है । २) तारा दृष्टि में ज्ञान-प्रकाश अर्थात् बोध गोबर-छाण की अग्नि के कण जितना है । ३) बलादृष्टि में ज्ञान-प्रकाश-अर्थात् बोध काष्ठ की अग्नि के कण जितना है । ४) दीपा दृष्टि में ज्ञान-प्रकाश-अर्थात् बोध दीपक की ज्योति की प्रभा जितना है । ५) स्थिरा दृष्टि में ज्ञान–प्रकाश अर्थात् बोध रत्न के प्रकाश के जितना होता है। ६) कान्ता दृष्टि में ज्ञान-प्रकाश अर्थात् बोध तारा के प्रकाश के जितना होता है । ७) प्रभा दृष्टि में ज्ञान-प्रकाश-अर्थात् बोध सूर्य के प्रकाश के जितना होता है । ८) परा दृष्टि में ज्ञान-प्रकाश अर्थात् बोध चन्द्र के प्रकाश के जितना होता है ।
इस तरह आठों दृष्टियों से होनेवाले बोध अर्थात् ज्ञान के प्रकाश का प्रमाण कितना? किस दृष्टि से कितना बोध कम ज्यादा हो सकता है उसको समझने के लिए प्रकाश के साधनभूत पदार्थों में ८ की गणना करके उपमाएं देते हुए ८ के दृष्टान्त दिये हैं । इनमें घास का तिनका, गोबर-छाण, लकडी का कोयला, दीपक की ज्योति, रत्नप्रभा, तारा, सूर्य और चन्द्र इन ८ की गिनती की है । इन आठों में प्रकाश का प्रमाण क्रमशः बढता हुआ बताया
है
"मिथ्यात्व” – प्रथम गुणस्थान
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