SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 474
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ओघ दृष्टि से योग दृष्टि में प्रवेश ओघ का अर्थ है अनादि काल से सर्वसामान्य प्रकार से जो संज्ञा या जैसी दृष्टि जीवविशेष की पडी हुई है, या बनी हुई है उसे ओघ दृष्टि कहते हैं । संसार में जन्मजात जीव इसी प्रकार की ओघ दृष्टि वाले ही रहते हैं । भारी पुरुषार्थ के बाद योगदृष्टि में प्रवेश कर पाते हैं। ओघ दृष्टि से तात्पर्य है कि भवाभिनंदिपने के रंग से रंगी हुई धर्मक्रिया करनी । भव अर्थात् संसार, अभिनंदिभाव अर्थात् प्रसन्नता, राजी होते हुए, खुशी व्यक्त करते हुए । भव–संसार के प्रति, संसार के भावों के प्रति सदा राजी रहते हुए जिस किसी भी प्रकार की धर्माराधना करना उसे ओघ दृष्टि कहते हैं । पौद्गलिक विषयों, एवं तज्जन्य सुखों के प्रति तीव्र राग रहता है । उसी की प्राप्ति की आकांक्षा से धर्मकरणी करना । इहलौकिक, एवं परलौकिक दुन्यवी सुखों-भोगों की प्राप्ति की सतत आकांक्षा बनी रहे ऐसी दृष्टि से शुद्ध धर्म की आराधना भी अशुद्ध हेतुपूर्वक करनी यह ओघ दृष्टि का लक्ष्य है । जैसे बच्चे के लिए पढने की अपेक्षा भी खेलने का महत्व ज्यादा है वैसे ही .... . ओघदृष्टि जीव के लिए ... धर्माराधना या धर्म से कर्मक्षय - निर्जरा, आत्मशुद्धि आदि का लक्ष्य बहुत ही कम है, नहीं जैसा ही समझ लीजिए जबकि पौद्गलिक दुन्यवी सुखों-भोगों की लालसा ज्यादा रहती है । I अनन्त काल के एवं अनन्त भवों के परिभ्रमण रूप इस संसार में जीव ने अनेकों बार ऐसी भवाभिनंदिता की ओघ दृष्टि में, मिथ्यात्व की दृष्टि में रह कर भी अनेकबार धर्म किया है । धर्माराधना की है । लेकिन योगदृष्टि न आने से और ओघदृष्टि न हटने से जीव पूरा लाभ उठा नहीं पाया । मात्र स्वार्थ साधने का काम किया। राग-द्वेष की वृत्ति के साथ धर्म किया । दुन्यवी सुख - भोगों की लालसा से धर्म किया। संसार में धर्माराधना के पुण्य - प्रभाव से जन्य प्राप्य सुखभोगों की प्राप्ति भी जीव के मन में प्रलोभन का भाव जगाती है । मन को ललचाती है। लोभ के कारण कोई ज्यादा उस प्रवृत्ति को करता है । ठीक वैसे ही ... यहाँ पर भी ओघदृष्टि के कारण भवाभिनंदी अर्थात् संसाररागी जीव यश–कीर्ति—मान–प्रतिष्ठा - सांसारिक सुखों-वैषयिक सुखों पौगलिक सुख - भोगों की अभिलाषा की पूर्ति के परिणामपूर्वक — दृष्टिपूर्वक धर्माराधना करता है । इनकी प्राप्ति भी धर्म से होती है । ऐसा जानने के कारण वैसा लोभ ज्यादा जागृत होता है । अतः अनेक जन्मों की इस ओघ दृष्टि से अब बाहर निकलकर योगदृष्टि में आना ही चाहिए । अत्यन्त आवश्यक है । ऐसी आवश्यकता अनिवार्य रूप से महसूस होनी चाहिए । "मिथ्यात्व" • प्रथम गुणस्थान - ४१३
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy