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________________ मानता है, धर्म को अधर्म रूप और अधर्म को धर्म रूप मानता है, जो स्वर्ग नरक है उसे न मानकर यहाँ पर ही सुख - दुःख की चरमावस्था में ही स्वर्ग-नरक मानता है, लोक-परलोक कुछ भी न मानता हुआ जो कुछ है वह यही है ऐसा मानता है, पूर्वजन्म और पुनर्जन्म कुछ भी नहीं है, इस मान्यता के आधार पर चलता हुआ खा- - पीकर मौज में मस्त रहना, बंध - मोक्षादि तथा आत्मा-परमात्मा आदि किसी भी तत्त्व में श्रद्धा न रखता हुआ विषय-वासना के वैषयिक भौतिक एवं पौगलिक सुखों में लीन रहना चाहता है, कर्म-धर्म को कुछ न मानता हुआ, आत्मकल्याण की बात को सर्वथा न सोचता हुआ मात्र शरीर की ही चिन्ता में लगा रहता है, पुद्गलानंदी और देहानंदी बनकर वह जीवनभर पाप करता रहता है, परन्तु जैसे जहर जानकर या अन्जान सभी के ऊपर समान असर करता है, वैसे ही पाप-कर्म सभी के जीवन में समानरूप से उदय में आते हैं। मिथ्यात्वी जीव दुःखों के सामने त्राहिमाम् पुकार उठता है । अतः महापुरुषों ने मिथ्यात्व को पाप ही नहीं परन्तु . सभी पापों में सबसे बड़ा महापाप कहा है। ऐसा महापाप सर्वथा हेय - त्याज्य एवं अनाचरणीय होता है । अतः हमें इससे बचना ही चाहिए । कर्मबंध का प्रथम हेतु मिथ्यात्व मिथ्यात्व की गणना १८ पापस्थानों में १८ वे पापस्थान के रूप में की गई है । यह सबसे ज्यादा भयंकर कक्षा का पाप है । इससे पाप का आश्रव होता है अर्थात् आत्मा में आगमन होता है । जैसे समुद्र में नदियों द्वारा पानी का आगमन होता है । इसी तरह बाह्याकाश में रहे हुए कार्मण वर्गणा के अशुभ पुद्गल परमाणुओं को जीवात्मा ग्रहण करती I है । वह भी मिथ्यात्व की ऐसी वृत्ति में ग्रहण करती है अतः मिथ्यादृष्टि से ग्रहण किये हुए कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणु आत्मा में आश्रव के रूप में प्रवेश करते हैं । जैसे दूध में शक्कर डालने के बाद हिलाकर मिलाई जाती है । शक्कर के कण-कण घुलकर मिलकर दूध के साथ एकरस हो जाते हैं। ठीक उसी तरह मिथ्याविचारधारा - दृष्टिवृत्ति की प्रवृत्ति द्वारा की जाती मिथ्यात्व पाप के अशुभ आश्रव से आत्म प्रदेशों में आए हुए कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं का बंध होता है । अर्थात् आत्मा के साथ घुलमिलकर एकरस बन जाते हैं । जैसे लोहे के गोले में अग्नि मिल जाती है और पूरे गोले को लाल बना देती है ठीक वैसे ही बंध की प्रक्रिया में आत्मप्रदेशों को वैसा मिथ्यात्वयुक्त बना देती है । अतः कर्मबंध के मुख्य पाँच हेतुओं —- १) मिथ्यात्व, २) अविरति, ३) प्रमाद, ४) कषाय और I ४१० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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