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न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषां भूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला ॥
वह मानता है कि मदिरापान - शराब पीने में कोई दोष नहीं है, न मास खाने में दोष है, न जुआं खेलने में दोष है और न ही मैथुन सेवन करने में पाप है, इसलिए जब तक जीना है, सुखपूर्वक जीना है, चाहे सिर पर कर्ज करके घी पीकर भी जीना पड़े । इस तरह मिथ्यात्वी जीव किसी में पाप मानने को तैयार नहीं है । वह ऋण- कर्ज बढाकर भी घी पीने के लिए तैयार है । उसी तरह पापों का सेवन करके भी सुख से जीने के लिए तैयार है । मिथ्यात्वी की ऐसी विपरीत अज्ञानवृत्ति एवं पापबुद्धि उसके आचार, विचार और व्यवहार में हमेशा ही स्पष्ट दिखाई देती है । इस तरह मिथ्यात्वी जीव ज्ञान एवं श्रद्धा के विषय में तथा चारित्र (आचार क्रिया) के विषय में, विपरीत मिथ्यावृत्ति वाला ही रहता है ।
२१ रूप से मिथ्यात्व
शास्त्रों में मिथ्यात्व को समझाने के लिए भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से विस्तृत विचार किया गया है। यद्यपि मिथ्यात्व अपने अर्थ में विपरीत मिथ्या भाववाला ही है, तथापि भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से भेद किये गये हैं, जिसमें प्रमुख रूप से मिथ्यात्व के १० संज्ञाएं, स्वरूपगत पाँच भेद, एवं लौकिक - लोकोत्तर दृष्टि से देव - गुरु- धर्मगत ६ प्रकार का मिथ्यात्व है । ये कुल मिलाकर २१ प्रकार बनते हैं ।
उपरोक्तं २१ प्रकार के मिथ्यात्व का विस्तृत स्वरूप जानकर या समझकर उनसे बचने का विशेष प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि मिथ्यात्व पापरूप है एवं कर्मबंध का कारण है, अनन्त संसार में परिभ्रमण का मुख्य कारण है, आत्मगुणघातक है एवं विपरीतज्ञान तथा अज्ञान की जड़ है । अतः इससे सर्वथा बचना ही लाभदायक है ।
मिथ्यात्व को पापस्थानक क्यों कहा ? -
शास्त्रों मे मुख्यतः १८ पापस्थान बताए गये हैं । इनमें अठारहवाँ मिथ्यात्वशल्य है । यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि मिथ्यात्व को पापस्थानक क्यों कहा ? प्रश्न भले ही आश्चर्यकारी हो लेकिन वास्तविकता में उतनी सच्चाई है । पहले तो हम यह सोचें कि पाप क्या है ? पाप क्यों और कैसे बनते हैं ? पाप से कर्म कैसे बंधता है ? तथा पाप का विपाक कैसा होता है ? यद्यपि इस विषय में तीसरी पुस्तक में विचार किया है, फिर प्रस्तुत 'अधिकार में संक्षेप में कुछ और सोच लेते हैं । जीव मन-वचन-काया के द्वारा
भी
"मिथ्यात्व"
- प्रथम गुणस्थान
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