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नियमानुसार सिद्ध होती है या न ही कोषादि अन्य के आधार पर । वैदिक परंपराधारी जिस प्रकार का जैसा ईश्वर मानते हैं वे वैसा ही स्वरूप दूसरों पर भी आरोपित कर देना चाहते हैं । यह कहाँ तक उचित है ?
___ ऐसा कोई नियम नहीं है कि- वैदिक जैसा ईश्वर का स्वरूप मानते हैं ठीक वैसा ही सभी दर्शनों को मानना चाहिए । अन्यथा वे नास्तिक कहलाएंगे। यह सर्वग्राही नियम है भी नहीं और हो भी नहीं सकता है । यह तो वैसे वैदिकों की मनघडंत कल्पना मात्र है। अतः कोई जरूरी नहीं है कि- ईश्वर को सृष्टि के रचयिता, जगत् के कर्ता, पालनहार और सर्जनहार स्वरूप में ही मानना । जी नहीं। बिल्कुल ही नहीं । यदि ईश्वर को वैदिक जैसा कहते हैं वैसा सर्जनहार स्वरूप में मानें तो सेंकडों दोष आते हैं। ईश्वर का वास्तविक स्वरूप ही नष्ट हो जाता है। ऐसे सेंकडों दोषों का ढेर जो ईश्वर को कर्ता माननेवाले के पक्ष में आते हैं उन्हें स्वतन्त्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित किये हैं। मेरी ही लिखी हुई ईश्वर विषयक पुस्तक को बुद्धिजीवी वर्ग को अवश्य ही पढना चाहिए। उसमें दिये हुए तर्कयुक्त प्रश्रों और युक्तियों को पढकर बुद्धि के स्तर पर सोचना चाहिए । सृष्ट्यादि स्वरूप में ईश्वर का स्वरूप कितना विकृत हो जाता है, कितनी विकृतियाँ आती हैं ? यह वहाँ पढने से ख्याल आएगा। संक्षिप्त स्वरूप में प्रस्तुत पुस्तक के दूसरे अध्याय में भी थोडा पढिए, ख्याल आएगा। सचमुच आपको सत्य कहता हूँ कि ऐसे पढने के बाद आपकी अन्तरात्मा ऐसे स्वरूपधारी को ईश्वर परमेश्वर-परमात्मा मानने के लिए किसी भी स्थिति में तैयार नहीं होगी। दूध प्राकृतिक रूप में पिया जाता तो अमृत का काम करता है और उसे ही यदि नीबू का रस डालकर फाडकर विकृत करके पिया जाय तो वैसी विकृति नुकसान पहुँचाती है । यह नुकसान शारीरिक है । जबकि ईश्वर के स्वरूप को विकृत रूप में ग्रहण करने पर आध्यात्मिक नुकसान बडा भारी होता है । दूध की विकृति के नुकसान का असर १-२ दिन रहेगा, जबकि ईश्वर की विकृत मान्यता के नुकसान का असर सेकडों जन्मों तक रहेगा। क्योंकि सच्ची श्रद्धा ही खतम हो जाने के बाद मिथ्यात्व ही शेष बचेगा। परिणामस्वरूप मिथ्यात्व सेंकडों जन्मों की भव परंपरा बढा देगा। इसलिए अत्यन्त आवश्यक है कि जिस किसी भी पदार्थ का स्वरूप हम जानें, समझें, स्वीकारें, मानें, अपनाएं उन्हें सेंकडों बार प्रमाणों के छन्नो से छानकर शुद्ध करके ही अपने मन में प्रविष्ट करावें। ___जैन दर्शन जो सर्वज्ञवादी दर्शन है। सर्वज्ञ-सर्वदर्शी ऐसे तीर्थंकर परमात्मा को ही ईश्वर-अरे ! ईश्वर तो क्या परमेश्वर रूप में मानता है । ऐसे सर्वज्ञ-सर्वदर्शी वीतरागी को परमेश्वर माननेपर यहाँ सृष्टिकर्ता-सर्जनहार-पालनहार-संहारकादि किसी भी विकृत
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आध्यात्मिक विकास यात्रा