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________________ है कि right is might but might may not be right जो सत्य है वह मेरा जरूर है, परन्तु जो मेरा है वह शायद सत्य न भी हो, यह सम्यक्त्व की सही मान्यता है। परन्तु अभिनिवेशिक मिथ्यात्वी ठीक इससे विपरीत मान्यता हठाग्रहवश रखता है । असत्य की पकड़ रखकर वह जोर-जोर से उसकी विपरीत प्ररूपणा करता है । नया मत निकालने में वह अग्रसर होता है । तथा अपने नये मत को निश्चय की तरफ, या एक तरफ ढालने में, और उसकी मजबूत पकड़ रखने में गौरव मानता है । मरने के अन्तिम क्षण तक भी असत्य को छोड़कर क्षमा याचना करके सत्य स्वीकार करने की उसकी तैयारी नहीं होती है। जमालि आदि जैसे, निमा एकदेशीय नयवाद को मुख्यता देनेवाले, जिन्होंने भगवान के . अनेकान्तिक एकसापेक्षवाद को ठुकराकर, अपनी एकदेशीय एकान्तिक मान्यता को जबरदस्ती लोगों के दिमाग में ठसाने का प्रयत्न किया, वे भी अभिनिवेशिक मिथ्यात्वी कहलाए हैं । अभिग्रहिक मिथ्यात्व, सर्वज्ञ वीतराग के दर्शन को न पाये हुए अन्यमती को, अपने एकमत के आग्रहवाले को होता है जबकि अभिनिवेशिक मिथ्यात्व तो सर्वज्ञ वीतराग के दर्शन को पानेवाले जीवन में भी हो सकता है, जैसे कि जमालि आदि को था। जावइया वयणपहा, तावइया चेव हुँति नयवाया। जावइया नयवाया, तवइयं मिच्छत्तं ।। जितने ही वचन अभिप्राय विशेष हैं, उतने ही नयवाद होते हैं और जितने ही नयवाद होते हैं, उतने ही मिथ्यात्व के प्रकार होते हैं । वक्तुरभिप्रायः विशेषो नयः । नय का लक्षण इस प्रकार बताया है कि वक्ता अर्थात् बोलनेवाले का अभिप्राय, विशेषविचार, नय कहलाता है । नय सभी निरपेक्ष-एकान्तिक होते हैं । एक नय दूसरे नय की अपेक्षा न करता हुआ, स्वतन्त्र चलता है । अतः एकनय मिथ्यात्व कहलाता है । ऐसे जगत में अनेक लोग हैं, अनेकों के अपने-अपने विचार-अभिप्राय भिन्न-भिन्न हैं । कहा गया है कि “पिण्डे पिण्डे मतिर्भिन्ना” हर मनुष्य की मति भिन्न-भिन्न होती है । जितने दिमाग उतने विचार होते हैं। जितने विचार उतने नय होते हैं । अतः जितने नय उतने सभी मिथ्या स्वरूप होते हैं। अतः एकान्तिक एकनय की पकड़ रखना यह मिथ्यात्व कहलाता है । अन्य नयों का स्वरूप जानता हुआ भी, यदि उनका सापेक्ष रूप से विचार न करते हुए एकान्त एकनय को पकड़कर ही चलता है, तो वह भी अभिनिवेशिक मिथ्यात्वी कहलाता है । यह भी अच्छा नहीं है। अतः सभी नयों का समुदित सापेक्ष ज्ञान करके, उन्हें प्रमाणरूप से स्वीकारने में सम्यक्त्व "मिथ्यात्व" - प्रथम गुणस्थान ३८१
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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