SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 436
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वह मनुष्य कहलाता है । ६) जो अरिहंत होते हैं वे भगवान कहलाते हैं या जो भगवान होते हैं वे अरिहंत कहलाते हैं । ७) जो हीरा होता है उसे रंगीन पत्थर कहना या जो रंगीन पत्थर होता है उसे हीरा कहना। ऐसे संदेहास्पद अर्थात् थोडी देर के लिए दुविधा में डालनेवाले ऐसे तर्क-युक्ति वाले कई प्रश्न खड़े होते हैं । परन्तु इनमें सही-सत्य छिपा हुआ है । तर्क एवं युक्तिपूर्वक तीक्ष्ण बुद्धि चलानेवाला इन में से सही सत्य का सार खोज निकालेगा। परन्तु ऐसा अनभिग्रहिक मिथ्यात्वी जो कि मंदमति है वह बुद्धि का उपयोग करने की झंझट में नहीं पड़ता है । तुलना और परीक्षा करने की भी उसकी वृत्ति नहीं होती है । अतः यह सब एक है ऐसा आसानी से कहता और मानता है । यदि परीक्षक बुद्धि से तुलना और परीक्षा करके सत्य खोजने के लिए छानबीन की जाय तो इसमें से हल्का-पतला सा अन्तर रखनेवाला सत्य अन्तर जरूर मिलेगा। छाछ में घी नहीं दिखाई देते हुए भी मंथन करने पर जो नवनीत निकलता है उसमें से घी प्राप्त होता है । सत्य की खोज करना यह सम्यक्त्वी का कार्य है। उपरोक्त तर्क–पूर्ण वाक्यों में सत्य खोजने की बुद्धि से यदि देखा जाए तो स्पष्ट दिखाई देता है कि... १) जो सोना होता है वह पीला जरूर होता है परन्तु जो पीला होता है उसे सोना नहीं कह सकते हैं। लेकिन सोने को जरूर पीला कहते हैं । २) जो चांदी होती है वह जरूर चमकती है, परन्तु जो कुछ चमकती हुई हो उसे चांदी नहीं कह सकते हैं, क्योंकि जिंक धात् भी चांदी की तरह चमकीली होती है। अतः न तो जिंक को चांदी कहते हैं और न ही चांदी को जिंक कह सकते हैं। चमकीलेपन के सादृश्य से धातु एक जैसी दिखाई देती है, परन्तु एक नहीं होती है। ३) जो माता होती है वह स्त्री अवश्य ही है, परन्तु जो स्त्री होती है वह माता नहीं भी होती है क्योंकि वंध्या भी स्त्री जरूर है परन्तु वह माता नहीं होती है । इस तरह स्त्रीपने का सादृश्य होते हुए भी मातृत्व भाव अलग ही है। ४) जहाँ धुंआ रहता है वहाँ अग्नि अवश्य ही रहती है परन्तु जहाँ अग्नि रहती है वहाँ धुंआ नहीं भी रहता है । तप्त अयःपिंड अयोगोलक भट्टी में तपाया हुआ लोहे का गोला बाहर रखा हुआ हो वहाँ अग्नि जरूर रहती है, परन्तु धुंआ नहीं होता है । ५) जो मनुष्य है वह जरूर खाता हैं, परन्तु खानेवाले सभी मनुष्य नहीं भी होते हैं, क्योंकि पशु भी खाते हैं । ६) जो अरिहंत होते हैं वे अवश्य भगवान कहलाते हैं, परन्तु जो भगवान कहलाते हैं वे अरिहंत नहीं भी होते हैं, क्योंकि ऐसे कई रागी-द्वेषी एवं भोगलीलावाले भी अपने आपको भगवान कहते हैं । तथा वर्तमान कलियुग में कई बन बैठे हुए भगवान भी हैं जो भोगलीला एवं पापलीला चला रहे हैं। वे अपने आपको भगवान कहते और कहलाते हैं, वे अरिहंत वीतराग नहीं कहला सकते हैं । कोष के आधार पर 'भग' शब्द के १४ अर्थ "मिथ्यात्व" - प्रथम गुणस्थान ३७५
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy