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जीवादयस्तत्त्वमिति निश्चयाभावरूपानधिगमात्मकं च। तदाह वाचकमुख्यः “अनाधिगमविपर्ययौ मिथ्यात्वम्” इति । -
"धर्मपरीक्षा” ग्रन्थ के ८ वे श्लोक की टीका में कहा है कि- जीवादि नौं तत्त्वों में निश्चयात्मक तत्त्वबुद्धि का नाम है सम्यक्दर्शन = सम्यक्त्व । और ठीक इससे विपरीत जीवादि नौं तत्त्वों में वैसी निश्चयात्मक बुद्धि का सर्वथा अभाव और विपरीत उल्टी बुद्धि को मिथ्यात्व कहते हैं। ऐसे मिथ्यात्व के मुख्य दो भेद होते हैं
१) विपर्यासात्मक २) अनधिगमात्मक १) जीवादि तत्त्वभूत पदार्थों को तत्त्वरूप यथार्थ–सही अर्थ में न मानने की वृत्ति को प्रथम विपर्यासात्मक मिथ्यात्व कहते हैं । और २) जीवादि तत्त्वभूत पदार्थ हैं ऐसा ज्ञान ही न होने के कारण, अर्थात् निश्चय ज्ञान के अभावरूप अज्ञान को अनधिगमात्मक मिथ्यात्व कहते हैं । इस तरह उमास्वाति वाचकमुख्यजी ने भी प्रशमरति ग्रन्थ की टीका में भी ऐसे ही भेदों का वर्णन किया है।
वैसे इन दो भेदों में मिथ्यात्व का विभाजन करके स्वरूप वर्णन किया है। परन्तु विस्तार से और ज्यादा स्पष्ट करने की दृष्टि से इन्हीं दो के पाँच भेद करते हुए पंचसंग्रह ग्रन्थकार ने पाँच नाम इस प्रकार दर्शाए हैं
अभिग्गेहि अणभिग्गहं च, तह अभिनिवेसियं चेव।।
संसइअ मणाभोगं, मिच्छत्तं पञ्चहा एव ॥८५ ।। पंचसंग्रह १) अभिग्रहिक, २) अनाभिग्रहिक, ३) अभिनिवेशिक, ४) सांशयिक और ५) अनाभोगिक ये पाँच प्रकार के मिथ्यात्व दर्शाए गए हैं।
१) अभिग्रहिक मिथ्यात्व___अभिग्रह अर्थात् एक प्रकार की पकड़ । कई लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने-अपने मत का आग्रह रखते हैं । हमने जो ग्रहण किया है वही सच्चा धर्म है, भले ही वह गलत भी हो, झुठ भी हो, परन्तु हम तो इसे ही मानेंगे, नहीं छोड़ेंगे ऐसा अभिग्रह अभिग्रहिक मिथ्यात्व कहलाता है । विपरीत बुद्धि के कारण अतात्त्विक किसी भी दर्शन को सत्य मानना एवं युक्त तत्त्वों के प्रति अश्रद्धारूप मति अभिग्रहिक मिथ्यात्व कहलाती है । प्रवाह रूप से आई हुई मान्यता को बिना समझे-विचारे पकड़ के रखना, अपने मत का कदाग्रह (हठ) रखना, उसमें सत्यासत्य की परीक्षा न करना, यह अभिग्रहिक मिथ्यात्व कहलाता
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आध्यात्मिक विकास यात्रा