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के स्वरूप को, सृष्टि के स्वरूप को, आत्मा-परमात्मादि तत्त्वों को भी सभी धर्मों के, सभी दर्शनों के लोगों ने देखा है, उनके बारे में सोचा - विचारा है । और सबको अपनी-अपनी दृष्टि में जैसा बैठा - जैसा लगा वैसा जगत के सामने कह दिया । जैसा होता है पदार्थ वैसा वह देखें या न भी देखें और वैसा ही वह मानें या न भी मानें फिर भी अहंभाव से जगत के सामने प्रतिपादन कर देता है। बस, इसी कारण संसार में भिन्न-भिन्न मत-मतान्तर बनते हैं और बढते रहते हैं । इन भिन्न-भिन्न मत-मतान्तरों के आधार पर ... संप्रदाय भी बन जाते हैं । फिर वे सभी सम्प्रदाय अपनी अपनी विचारधारा के आधार पर संसार में परस्पर लडते-झगडते ही रहते हैं । एक कहता है मेरा सत्य है । दूसरा कहता है कि नहीं, तुम्हारा गलत है, मेरा ही सत्य है । लडते जरूर सत्य के लिए हैं, परन्तु ममत्व - मोह से अपना ही सत्य है यह दिखाने के लिए लडना है उन्हें । अहंभाव के कारण यह कदाग्रह की लडाई चलती ही रहती है । परन्तु चरम सत्य के लिए सर्वज्ञ का वचन कोई पक्ष स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होता है ।
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नयवाद की एकान्तता
एक हाथी की पहचान करने के लिए, उसके बारे में जानकारी - ज्ञान प्राप्त करने के लिए... सात अन्धे गए। सातों ने हाथी का स्पर्श किया... जिसके हाथ में जो अंग आया उसी का स्पर्श किया। किसी के हाथ में हाथी की पूंछ आई तो उसने कहा कि हाथी तो
रस्सी जैसा है। सूंढ हाथ में आने वाले ने कहा कि हाथी बडे पाईप जैसा है । पैर पकडनेवाले ने कहा कि हाथी तो खंभे - स्तंभ जैसा है। कान पकडनेवाले ने कहा कि हाथी अनाज साफ करने के सूपडे जैसा है। पेट को पकडनेवाले ने कहा कि नहीं ... नहीं ... हाथी बडी पानी की टंकी जैसा है। इस तरह सभी ने अपनी अपनी दृष्टि के आधार पर हाथी की पहचान प्राप्त की और जब अपने अपने गाँव गए तब प्ररूपणा भी एक-एक मत के आधार पर वैसी ही की ।
अब सबके अपने-अपने दृष्टिकोण से हाथी की पहचान विषयक प्ररूपणा करने से हाथी का स्वरूप लोगों की समझ में कैसा आएगा ? ये सातों कदाग्रही हठाग्रही एवं मिथ्याभिमानी होने से अपनी-अपनी पक्कड पकडकर रखनेवाले हैं । वे परस्पर अन्दर–अन्दर सबके बीच विचारणा करके अपना मत दूसरों को कहकर उनकी भी विचारधारा सुननेवाले नहीं हैं। चलो, हम सब अपने विचारों को मिलाकर, आदान प्रदान करके भी ज्ञान पूरा करनेवाले नहीं है । वे तो ऐसे विचारवाले हैं कि बस, हमने जो ज्ञान
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"मिथ्यात्व"
- प्रथम गुणस्थान
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