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________________ फिर वही बात । विष्ठा में हाथ बिगाडो और धोने के लिए काशी गंगा जाओ । ईश्वर जब सर्वज्ञ थे, सर्ववेत्ता थे, सब कुछ जानते थे तो फिर ईश्वरवाद जगत्कर्तृत्ववाद न स्वीकारनेवाले और इसका विरोध करनेवाले हमारे जैसों का क्यों निर्माण किया है ? क्या यह ईश्वर की भूल नहीं है ? यदि आप ईश्वर की सृष्टि में भूल निकालते हैं तो ईश्वर की सर्वज्ञता चली जाएगी । फिर तो भूल करें वह भी भगवान और भगवान भी भूल करता है यह स्वीकारना पड़ेगा । या हम ऐसा कहेंगे कि हमारा क्या कसूर है ? 'ईश्वर हमारे द्वारा ही यह विरोध करवा रहा है । हम तो निर्दोष हैं । कठपुतली की तरह हमको नचाता हुआ ईश्वर ही हमारे द्वारा यह करवाता है तो ईश्वर ही कारण ठहरेगा । ईश्वर को कैसा मानें- इस द्विधा में आप पड़े हैं। अब इस भंवर में से बाहर कैसे निकलना यह एक समस्या है। जीव को माता की कुक्षी में शुक्र - शोणित ग्रहण कर पिण्ड बनाकर देह रूप में परिणत करने के कारण में कर्म ही कारण है। ईश्वर को न तो कारण मान सकते हैं और न ही सामग्री । अतः यह बात माननी ही पड़ेगी कि जीव कर्मरूप उपकरण के द्वारा ही देह का निर्माण करता है । अपना संसार जीव स्वयं ही बनाता है और है । इस तरह संसार में अनन्त संसारी जीव कर्माधीन हैं। सभी कर्म संयोगवश अपना संसार निर्माण करते हैं और चलाते हैं। बस ईश्वर को कर्तृत्व, फलदाता आदि के रूप में बीच में स्वीकारने की आवश्यकता नहीं है । बलात् जबर्दस्ती करने पर ईश्वरस्वरूप विकृत होता है । चलाता ईश्वरकर्तृत्व की निष्प्रयोजनता निष्कर्म कर्मरहित जीव शरीरादि नहीं बनाता है। चूंकि वह निश्चेष्ट है। जो आकाशादि के समान निश्चेष्ट हो वह आरम्भ कार्य में असमर्थ होता है। कर्मरहित जीव जो सिद्धात्मा - मुक्तात्मा कहलाता है । वह निश्चेष्ट निष्क्रिय है तथा वहाँ कर्म उपकरण भी नहीं है अतः देह निर्माण या संसार निर्माण कुछ भी संभव नहीं है । जहाँ कर्म उपकरण है वहीं संभव है I - अब यदि आप ईश्वर को सशरीरी मानकर कुम्हार की तरह सृष्टि का कर्ता मानते हो तो हमारा प्रश्न यह है कि ईश्वर ने अपने शरीर की रचना स्वयं बनाई या दूसरे के द्वारा ? दूसरे के द्वारा मानने पर अनवस्था दोष आएगा । यदि यह कहें कि ईश्वर ने स्व- शरीर की रचना स्वयं की, तो यह बताइये कि ईश्वर ने स्व- शरीर की रचना सकर्म होकर की या अकर्म होकर की ? यदि कर्मरहित होकर की कहेंगे तो आकाश भी कर सकता है । वह निष्कर्म आध्यात्मिक विकास यात्रा १५२
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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