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________________ तेरे मेरे तो कई संबंध हैं । तू मेरा भाई होता है, पत्र भी कहलाता है, देवर भी है, भतीजा भी होता है, चाचा भी लगता है तथा पौत्र भी लगता है । तेरे पिता मेरे भाई भी होते हैं, पिता, दादा, पति, पुत्र और श्वसुर भी लगते हैं। हे बालक ! तू रो मत । भाई ! तेरी माँ मेरी भी माँ लगती है, मेरे बाप की भी मां लगती है। मेरी भूजाई, पुत्रवधु, सास और शोक्य भी लगती है । इस तरह १८ प्रकार के सभी संबंध तेरे मेरे बीच लगते हैं । बनते हैं। तेरा बाप और मैं भाई-बहन हैं, और पति-पत्नी के संबंध से जुडे । इतना ही नहीं हम छूटे तो भाई (पति) कुबेरदत्त यहाँ मथुरा में आकर अपनी माँ के साथ ही देहसंबंध करता हुआ पतिरूप में रहने लगा और उससे एक पुत्र पैदा हुआ। हाय ! इस संसार की कैसी भयंकर विचित्रता? अब क्या किया जाय? किसको मुँह दिखाए? साध्वी जो कुछ बोल रही थी वह वेश्या ने और कुबेरदत्त दोनों ने सुना । सुनकर बहुत ही दुःख हुआ। विषयवासना के निमित्त कैसे भयंकर पापकर्म हो जाते हैं । पश्चात्ताप से मन वैराग्यवासित हुआ। भाई ने भी दीक्षा ली । साधु बनकर कडी तपश्चर्या करके पाप धोने का संकल्प किया । वेश्या ने वेश्यावृत्ति छोड़ दी । सभी पापों को धोने के लिए पश्चात्ताप एवं प्रायश्चित की प्रवृत्ति में लग गए। कैसा विचित्र है यह संसार? कैसी घटनाएं घटती हैं ? कैसा स्वरूप धारण कर लेती हैं? विचित्रता, विषमता और विविधता इस तरह देखने से स्पष्ट दिखाई देगा कि समस्त संसार का स्वरूप सैकड़ों प्रकार की विचत्रताओं, विविधताओं एवं विषयताओं से भरा पड़ा है । अतः यही सत्य कहा जाता है कि जहाँ इस प्रकार की विचित्रता, विषमता एवं विविधताएं भरी पड़ी हैं, वही संसार है। उसी का नाम संसार है । संसार के बाहर मोक्ष में इनमें से एक भी नहीं है । चित्र अर्थात् आश्चर्य-विचित्रता अर्थात् आश्चर्यकारी–विस्मयकारी स्वरूप । अतः संसार का स्वरूप जो भी कोई देखे उसे आश्चर्यकारी ही लगेगा । संसार में आश्चर्य नहीं होगा तो कहाँ होगा? अतः समस्त आश्चर्यों का केन्द्र संसार ही है। आप देखेंगे कि कोई सुखी है तो कोई दुःखी है। . . कोई राजा है तो कोई रंक है। कोई अमीर है तो कोई गरीब है। कोई बंगले में है तो कोई झोपड़ी में है। कोई राजमहल में है तो कोई फुटपाथ पर है। कोई हँसमुख है तो कोई रोता हुआ है। ११० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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