________________
उपकार का ऋण कभी भी नहीं चुका सकते । सिद्ध परमात्मा के उपकार का शतप्रतिशत संपूर्ण ऋण तो हम तभी चुका सकते हैं जबकि हम स्वयं सिद्ध बनकर किसी जीव को निगोद के गोले की अनन्तगुनी वेदना से मुक्त कराके बाहर निकालें । निगोद से उसे बाह्य संसार के धरातल पर जन्म दें। तभी सिद्ध परमात्मा के उपकार का ऋण चुकाया, समझा जाएगा । उसी तरह अरिहंत परमात्मा के अनन्त उपकार का ऋण भी तभी चुकाया समझा जाएगा। जब हम स्वयं एक दिन - हंत बनकर अनेक जीवों को धर्मोपदेश से तारें । उनका कल्याण करें। उन्हें मोक्षमार्ग पर लाएं । उन्हें सिद्ध बनाने में पुरुषार्थ करें । मोक्ष में उन्हें भेजने के मार्ग - दर्शक बनें। तभी अरिहंत के उपकार का ॠग चुकाया समझा जाएगा । अतः जो जो भी जगत में तीर्थ ंकर बने हैं हम उनका अनन्त उनकार मानें । उदाहरणार्थ भगवान महावीर तीर्थ कर अरिहंत बने तो कितना अच्छा हुआ ? कितने भव्य त्माओं का कल्याण किया । कितने जीवों को मोक्षमार्ग की पटरी पर चढ़ाया। उनसे बोध प्राप्त कर कितने जीव मोक्ष में गए तो अच्छा ही हुआ । चूंकि उतने जीत्र निमोद से बाहर निकले । और कितने जीवों ने तीर्थंकर नामकर्म निकाचित किया है ? अर्थात् अरिहंत बनने का निश्चय किया । अतः उपकार भी द्विगुणीत त्रीगुणीत शतगुणीत हुआ । यह कितना अच्छा हुआ । हमें इस विषय में प्रतिदिन अनुमोदना व्यक्त करनी चाहिए । प्रभु महावीरादि अनन्त तीर्थंकर अनन्त अनन्त अभिवादन के योग्य है । अनंतबार वंदनीय - नमस्कारणीय है । हम उनका जितना उपकार मानें उतना कम ही है ।
निगोद से निकले जीव की संसार यात्रा
सीके मोक्ष में जाने से निगोद से बाहर निकला हुआ जीव अब अपनी संसार यात्रा का प्रारम्भ करता है । सर्वप्रथम वह जीव गोले से बाहर आकर सूक्ष्म स्वरूप से ऊपर उठकर बादर साधारण वनस्पतिकाय में कई जन्म धारण करता है । दिवाल पर की काई, फूलण, पंचवर्णी फूग- फिर आलु प्याज, लहसून, गाजर, मूनी, शकरकंद आदि इन सभी बादर (स्थूल) साधारण वनस्पतिकाय में जन्म धारण करता है । वनस्पतिक्राय को चक्र पूरा करके आगे पृथ्वीकाय में पत्थर, मिट्टी, सोना-चांदी पीतल- लोखन आदि धातुओं में, पारा, फिटकरी, हिंगलोक, हरताल, सौवीरंजन आदि पृथ्वी काय के अनेक जन्मधारण करता हुआ अपकाय में जाता है | अप = पानी, पानी का शरीर - जन्म धारण करता है । पानी की एक बूंद में असंख्य जीव इकट्ठे रहते हैं । सूक्ष्म या बादर साधारण शरीर में जहां एक शरीर में एक साथ अनन्त जीव रहते थे वह दु:ख अब पानी में कम हुआ । और पानी
में एक बून्द में एक
कर्म की गति न्यारी
३०