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________________ बताया है । पित्त शामक तथा वायुनाशक आदि स्वभाव वाली चीजें अपना गुणधर्म दिखाती है । ठीक उसी तरह आत्मा पर लगे कर्मों की प्रकृति अर्थात् स्वभाव है कि आत्मा के ज्ञानादि गुणों को ढकना । (२) एक मिठाई की दुकान वाला लड्डु बनाता है और बेचता है । वे लड्डु कितने दिन तक चलेंगे ? बिगड़ेंगे नहीं। वैसे ही आत्मा पर लगे हुए कर्म कितने वर्ष तक रहेंगे ? वह स्थिति बंध बताता है । (३) रस-भोजन में षट् रस होते हैं तीखा-खट्टा-मीठा-कड़वा-तूरा-खारा इत्यादि । उसी तरह आत्मा के साथ लगे कर्मों का भी रस होता है। रस बंध में तीव्रता. म दता आदि के भेद हैं । तथा उस रस बंध के आधार पर कर्मों के फल में जुभाशुभता देखी जाती है । (४) प्रदेश-बच्चा मिट्टी की गेन्द बनाकर खेल रहा है। उनकी भिन्न-भिन्न संख्या है । उसी तरह आत्मा में आए हुए कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं की संख्या या प्रमाण को प्रदेश बंध कहते हैं। इस तरह चार प्रकार का बंध चार चित्रों के उदाहरग से समझाया है । अब क्रमशः विस्तार से एक-एक का विचार करें : (१) प्रकृति बंध-प्रकृति का अर्थ है स्वभाव-Nature जड़ पुद्गल परमाणुओं का भी अपना स्वभाव है। कार्मण वर्गणा के जो पुद्गल परमाणु आत्म प्रदेशों के साथ बंधकर एक रस हो गए हैं अब वे अपना कर्म के स्वरूप में स्त्रभाव दिखाएंगे । प्रति समय ग्रहण किये जाते कर्म स्कंधों में भिन्न भिन्न स्वभावों का निश्चय होना यह प्रकृति बंध है। आज जीवात्मा अपने ज्ञानादि गुगों के स्वभावानुसार सारी प्रवृत्ति नहीं कर पा रहा है। क्योंकि आत्मा के उन उन गुणों पर कर्म का आवरण प्रा जाने से अब हमारी सारी प्रवृत्ति कर्मानुसार हो रही है। सभी प्रवृत्तियों में कर्म के स्वभाव की प्राधान्यता है। उदाहरण रूप से देखिए-हम रागद्वेष-क्रोध-मान-माया-लोभ-विषय-वासना कामादि की जितनी भी प्रवृत्ति करते हैं । इनमें से कौनसी आत्म गुण के आधार पर हो रही है ? एक भी नहीं । क्योंकि क्रोधादि करना आत्मा का स्वभाव नहीं है। गुण भी नहीं है। ये क्रोधादि स्वभाव नहीं है वास्तव में विभाव दशा की विकृति है। परन्तु आज हम स्वभव के रूप में व्यवहार करते हैं--ये तो बहुत क्रोधी है । ये बहुत लोभी है इत्यादि । यह व्यवहार कर्म स्वभाव के आधार पर होता है । अत : संसारी कर्म युक्त जीव कर्मानुसार वृत्तिप्रवृत्ति वाले हैं । हां कर्म प्रकृति को दबाकर उसके उदय में भी उस कर्म प्रकृति के स्वभाव को गौण कर आत्म धर्म की सधना यदि जीव करने लगे तो जरूर होगी । तो ही कर्मावरण हटेंगे । आठ उदाहरण जो ८ कर्मों को समझने के लिए दिये गये हैं उसमें आंख पर पट्टी, द्वारपाल, मदिरापान आदि का जो स्वभाव हैं वैसा ही स्वभाव बंधी हुई कर्म प्रकृतियों का है। अतः स्वभाव के आधार पर प्रकृति बंध कहा गया है । ऐसी कर्म की प्रकृतियां कितनी है ? कौनसी है उनके विषय में कहा है कि-- कर्म की गति न्यारी १६५
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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