SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मानसिक एवं वाचिक अनेक बाह्य प्रवृत्तियों से व्यक्त होती है । अभिसंधिज एवं अनभिसंधिज वीर्य दोनों प्रकार के वीर्यप्रवर्तन से आत्मा में सतत कर्म योग्य कार्मण वर्गणा का प्रवेश होता ही रहता है। फिर प्रवेश हुए कार्मण परमाणु आत्म प्रदेशों के साथ एक रस होकर संबंध में आते हैं । यही बंध है । आत्मा का प्रकंपित वीर्य जो कंपन पैदा करता है यह आत्मा के असंख्य प्रदेशों में सतत होता है। इसी के कारण आत्मा में सतत नए कर्म परमाणुओं का आगमन होता रहता है । फिर बंध होता रहता है। आत्मा के असंख्य सभी प्रदेशों के द्वारा ग्रहण कराते उन पुद्गल स्कंध समूहों में अनन्त वर्गणाएं होती है तथा प्रत्येक वर्गणा में अनन्त परमाणु होते है। आत्मा के वीर्य के विपरीत प्रवृत्ति द्वारा सतत असंख्य पुद्गलों से प्रात्मा ढकती जाती है । यह विपरीत प्रवृत्ति मन-वचनकाया के द्वारा होते हुए करण वीर्य के द्वारा होती है। प्रति समय आत्मा के असंख्य प्रशों में अख्य पुद्गल परमाणुमय कार्मण वर्गणा का ग्रहण होता है । आहार लेने के बाद जिस तरह पाचन होता है, फिर आगे रक्त-रुधिर-रसादि सप्त धातुओं में जिस तरह परिणमन होता है ठीक उसी तरह कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं के ग्रहण के बाद आत्मा में उनका परिणमन होता है । ग्रहण क्रिया आश्रव मार्ग और परिणमन की क्रिया बंध तत्त्व के रूप में गिनी जाती है । यह बंध आत्मा के साथ पुद्गल परमाणुओं के एक रस भाव को कहते हैं । क्षीर नीरवत् बंध होता है । कर्म बंध के हेतुनों में जो मिथ्यात्वादि हेतु कारण रूप है उनका थोड़ा विचार करने से वे स्पष्ट हो जाएंगे। मिथ्यात्व 'तत्र सम्यग् दर्शनाद् विपरीतं मिथ्यादर्शनम्" । सम्यग् दर्शन से जो विपरीत · है वह मिथ्यादर्शन कहलाता है । सम्यग् अर्थात्-यथार्थ, वास्तविक सच्चा दर्शन ही सम्यग् दर्शन कहलाता है । जो पदार्थ जैसा है जिस स्वरूप में है उसे वैसा ही देखनाकहना-मानना यह सम्यग् दर्शन है । ठीक इससे विपरीत अर्थात् जो पदार्थ जैसा है जिस स्वरूप में है उससे विपरीत देखना-कहना-मानना यह मिथ्या दर्शन है । ऐसी मिथ्या बुद्धि मिथ्यात्व कहलाती है। "तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग् दशनम्" तत्त्व और अर्थ की सच्ची श्रद्धा सम्यग् दर्शन है। इससे विपरीत "तत्त्वार्थ प्रश्रद्धानं मिथ्यादर्शनम्" तत्त्व और अर्थ की अश्रद्धा-उल्टी-गलत धारणा या मान्यता यह मिथ्यादर्शन है । मिथ्या भाव को मिथ्यात्व कहा है। देवाधिदेव भगवान एक तत्त्व है। उसका जो जैसा सही स्वरूप है वैसा न मानकर उल्टा मानना, विपरीत में भी कर्म की गति न्यारी १५९
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy