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________________ तीसरा प्रवचन-३ "कर्म सत्ता का अस्तित्व" परमगुरू परमनाथ परमार्हन् परमपिता परमात्मा श्री महावीरस्वामी के चरणारविंद में कोटिशः वंदना पूर्वक ...... ईश्वरवाद की चर्चा कर चुके हैं इससे यह फलित हुआ कि ईश्वर न तो सृष्टि का कर्ता सिद्ध हो सकता है और न ही ईश्वर जीवों के कर्म का कर्ता व कर्म फल दाता भी सिद्ध नहीं हो सकता है। तो फिर संसार की विचित्रता, विविधता एवं विषमता आदि का कारण कौन हो सकता है ? जीवों के सुख-दुःख का कारण कौन हो सकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में दार्शनिकों ने काल-स्वभाव-नियति-पूर्वकृत कर्म-पुरूषार्थ एवं यदृच्छा व अज्ञानादि अन्य कई कारणों पर विचार विमर्श किया है । उसकी थोड़ी संक्षेप में यहां विचारणा करें । पांच कारणवाद कालादि की कारणता कालादीनां च कर्तृत्वं मन्यन्तेऽन्ये प्रवादिनः । . केवलानां तदन्ये तु मिथ: सामग्रयपेक्षया ।। शास्त्रवार्ता समुच्चय महाग्रन्थ में तार्किक शिरोमणि पूज्य हरिभद्र सूरि महाराज ने द्वितीय स्तबक में कालादि की चर्चा करते हुए लिखा है कि कुछ एकान्तवादी विचारक एक मात्र काल या स्वभावादि को ही कार्य का हेतु मानते हैं। अर्थात् संसार की विचित्रता आदि तथा जीवों के सुख-दुःखादि में कारण रूप से काल-स्वभाव-नियति-पूर्वकृत कर्मादि भिन्न-भिन्न को कारण मानते हैं । यह निरपेक्ष एकान्तवादी विचारधारा है। इससे भिन्न अनेकान्तवादी सापेक्षदृष्टि से कालादि को सापेक्ष रूप से सहकारी-सहयोगी कारण मानते हैं। कारण समूह-सामग्री के घटक रूप में सहकारी होकर कार्य के कारण होते हैं। व्यक्तिगत किसी भी एक को ही सम्पूर्ण कारण नही मान सकते । सिर्फ एकान्त पक्ष लेकर कालवादी, स्वभाववादी, नियतिवादी आदि दार्शनिक विचारधाराओं का स्वतंत्र पक्ष क्या है ? उसकी संझेप में थोड़ी समीक्षा यहां देखें। कर्म की गति न्यारी १०१
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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