SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 909
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८६४ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र जैसा नाम है, वैसे ही जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्नों की व्याख्या इसमें की गई है। सभी युगों में दु.ख और सुख से सम्बन्धित प्रश्न ही जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्न रहे हैं। सभी धर्मगुरुओं ने इन्हीं मूलभूत प्रश्नों को ले कर अपने-अपने धर्म का निरूपण किया है। परन्तु प्रश्नव्याकरणसूत्र में कुछ ऐसी निराली खूबी है कि इसमें दुःख और सुख इन दोनों से सम्बन्धित प्रश्नों की ही व्याख्या की गई है । यद्यपि शास्त्रकार के कथनानुसार इनमें एक ही श्रुतस्कन्ध माना गया है। तथापि आश्रवद्वार और संवर. द्वार नामक दो खंड अवश्य हैं। आश्रवद्वार के बदले अधर्मद्वार नाम भी प्रयुक्त हुआ है। यानी प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य (मैथुन) और परिग्रह इन पांच आश्रवों के क्रमशः पांच अध्ययन प्रथम खंड-आश्रवद्वार में हैं। इसके पश्चात् द्वितीय खंड-संवरद्वार में भी अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पांच अध्ययन छठे अध्ययन से ले कर दसवें अध्ययन तक हैं । ये पांचों संवरद्वार पचमहावतों के रूप में वर्णित हैं। उत्तरोत्तर उत्कृष्ट ये दसों अध्ययन एक ही शैली में हैं, फिर भी एक से एक बढ़कर हैं । वैसे तो शास्त्र रत्नाकर है । इसमें बहुत रत्न भरे पड़े हैं । कोई तुलना नहीं की जा सकती कि कौन-सा अध्ययन किस अध्ययन से बढ़कर है। परन्तु इन की वर्णनीय वस्तु को देखते हुए सामान्यतया यह कहा जा सकता है कि इनका वर्णन बहुत ही विशद है। व्याख्यानरीति - प्रश्नव्याकरणसूत्र या किसी भी आगम की वाचना या व्याख्यान बिना तप के निखर नहीं सकता। तपस्या के साथ वाचना हो तो वाचना में निखार भी आ जाता है; और ज्ञान के साथ दर्शन, चारित्र और तप की भी आराधना हो जाती है। धर्म तो आचारप्रधान ही होता है। शास्त्रज्ञान भी श्रुतधर्म है। उसका आचरण भी ज्ञान के अतिरिक्त दर्शन (देवगुरुधर्म पर श्रद्धा) चारित्र (श्रद्धापूर्वक धर्माचरण) और तप (चारित्रशुद्धि के हेतुतप) से ही परिपूर्ण होता है । इसीलिए यहाँ शास्त्रकार ने प्रश्नव्याकरण सूत्र की वाचना की अवधि १० दिन की बताई है, और उसके साथ लगातार एकान्तर (एक दिन बीच में पारणा करते हुए) आयंबिल के साथ करने का भी निर्देश किया है। इस प्रकार श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र सुबोधिनीव्याख्यासहित सम्पूर्ण हुआ। शुभं भूयात् ॐ अर्हम्
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy