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________________ दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह-संवर ८४६ 'इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ । तयोर्न वशमागच्छेत् तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ।' अर्थात् - 'प्रत्येक इन्द्रिय के अर्थ के साथ राग और द्वष जुड़े हुए हैं। साधक उन राग और द्वष के वशीभूत न हो । ये दोनों ही सम्धक के अनासक्त-अपरिग्रही जीवन के शत्रु हैं।' साथ ही यह भी समझ लेना जरूरी है कि साधु अनायासप्राप्त इन्द्रियविषय को टाल नहीं सकता। जैसे, एक साधु भिक्षा के लिए जा रहा है, बाजार में अत्तार की दूकान में सजी हुई इत्र की शीशियों से भीनी-भीनी मधुर महक आ रही है, किसी दूकान पर रखे हुए रेडियो से कर्णप्रिय सुरीले गायन की ध्वनि आ रही है, सामने से एक सुन्दर युवती सोलह शृंगार से सजी-धजी आ रही है, हलवाई की दुकान पर स्वादिष्ट सुगन्धित मिष्टान्न सजे हुए हैं, इसी प्रकार किसी गृहस्थ ने अपनी कोमल करांगुली से उसके चरणों को छू लिया; अब क्या वह इन पांचों इन्द्रियों के विषयों को टालने के लिए क्रमश: नाक, कान, आँख, जीभ या स्पर्शन-इन्द्रिय बंद कर लेगा या निश्चेष्ट कर लेगा? नहीं, ऐसा करना कदापि सम्भव नहीं है। अतः विषयों का पांचों इन्द्रियों से ग्रहण तो होता है; लेकिन विवेकी धीर साधक उन अनायासप्राप्त विषयों से न घबड़ा कर अथवा उक्त पांचों से विपरीत अमनोज्ञ विषयों के अनायास प्राप्त होने पर न झुझला या झल्ला कर अपने मन पर राग और द्वेष के भाव अंकित नहीं होने देगा। अर्थात् वह मन से पांचों इन्द्रियों के अनुकूल प्राप्त विषयों या विषयानुरूप साधनों पर राग नहीं करेगा और पांचों इन्द्रियों के प्रतिकूल प्राप्त विषयों या विषयानुरूप साधनों पर द्वेष नहीं करेगा। राग और द्वष न करने का कोई साधक इतना ही अर्थ न लगा ले कि राग तो करना नहीं है, मोह, लालसा, लोभ, गृद्धि. आसक्ति, कामना, वासना, स्मरणं, मनन करने में हर्ज ही क्या है ? इसी प्रकार द्वष न करने का इतना ही अर्थ न लगा बैठे कि द्वेष तो करना नहीं है; रोष, घृणा, विद्रोह, मारपीट, ताडनतर्जन, डांटफटकार, धिक्कार, अपमान, नफरत आदि करने में क्या हर्ज है ? ऐसा करना गलत होगा। उससे अन्तरंग परिग्रह सर्वथा रुकेगा नहीं। एक जहर के बदले दूसरा जहर ले लिया जाय तो उससे जहर का असर कम नहीं होता। राग और द्वष ये दोनों प्रधान विष हैं, ये दोनों अन्तरंग परिग्रह के नायक हैं, सेनापति हैं। इनकी फौज बहुत बड़ी है, इनका परिवार बहुत ही लम्बा-चौड़ा है। यही कारण है कि शास्त्रकार ने 'न रज्जियव्वं' के साथ-साथ 'न सज्जियव्वं' आदि राग के अन्य साथियों या परिवार ५४
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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