________________
दसवां अध्ययन : पचम अपरिग्रह-संवर
८४५
डालना, खार, कलकल करता हुआ अत्यन्त तपा हुआ तेल डालना, खोलते हुए सीसे व काले लोहे का सेक करना, खोड़े में पैर डालना, रस्सी या बेड़ियों से पैर बांधना, हाथों में हथकड़ियां डाल देना, कड़ाही में पकाना, आग से जलाना, सिंह की पूछ के साथ बांध कर घसीटवाना अथवा पीठ तोड़ देना, वृक्ष आदि के साथ उलटे बांध कर लटका देना, शूली में पिरो देना, हाथी के पैरों तले रौंदवा डालना, हाथ-पैर, कान, नाक, ओठ और सिर कटवा देना, जीभ खींच लेना, अंडकोश, आंख, हृदय और दांत तोड़ना, बैलों की तरह खूटे से बांध देना, बैत और चाबुक से प्रहार करना, पैरों के पिछले भाग और घुटनों पर पत्थर पटकना, कोल्ह में पीलना, अत्यन्त खाज चलाने वाली कौंच की फली अग्नि, बिच्छ का डंक, सनसनाती तेज हवा, तवे की तरह तपतपाती धूप, या लू, डांस और मच्छरों के उपद्रव, दुःखद और खराब आसन या बैठने की जगह एवं दुःखप्रद स्वाध्यायभूमि की प्राप्ति-इन सभी पदार्थों के कारण जो भी कठोर, भारी, ठंडे, गर्म और रूखे दुःखद स्पर्श होते हैं, उनमें तथा इसी प्रकार के अन्यान्य अमनोज्ञ एवं पापजन्य अशुभ स्पर्शी के मिलने पर या वैसी वस्तुओ या वस्तुओं के देने वालों पर अनासक्त श्रमण को न रोष करना चाहिए, न उनकी अवज्ञा करना उन्हें ठुकरा चाहिए, न निंदा और गर्दा करनी चाहिए, न खीजना या चिढ़ना ही चाहिए, न उन वस्तुओं को फेंक कर तोड़ना-फोड़ना चाहिए, या उन वस्तुओं के लाने वाले का अंगभंग न करना चाहिए, न मारपीट करनी चाहिए और न ही उन पर जुगुप्सा, घृणा या नफरत करनी चाहिए। ___ इस प्रकार स्पर्शनेन्द्रियभावना से जब साधु की अन्तरात्मा ओतप्रोत हो जाती है, तब वह मनोज्ञ और अमनोज्ञ, शुभ या अशुभ स्पर्श पर न तो राग करता है, न द्वष ही। वह अपनी आत्मा में आते हुए राग-द्वष आदि अशुभ विचारों को रोक लेता है, वह स्वपरहितसाधक मन-वचन-काया को भी उनसे बचा कर सुरक्षित कर लेता है, और अपनी आत्मा को संवर से संवृत और इन्द्रियों को वश में करता हुआ चारित्रधर्म का आचरण करता है।
इस प्रकार साधक के मन, वचन और काया को पूर्ण सुरक्षित रखने वाले, इन (पूर्वोक्त भावनारूप) पांच कारणों से यह पांचवें अपरिग्रहसंवर का द्वार सम्यक्रूप से संवृत हो जाता है और साधक के दिलदिमाग में