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________________ ८१८ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र चाई, लज्ज, धन्न, तवस्सी - वह परिग्रह का सर्वथा त्यागी होता है । पाप कर्म करते हुए शर्माता है, वह अपने जीवन में संयम का धनी या धन्य है, तपस्वी भी है। खंतिखमे, जिइंदिए, सोहिए, अणियाणे, अबहिल्लेसे, अममे, अकिंचणे, छिन्नगथे, निरुवलेवे-ये अपरिग्रही की बाह्य पहिचान के चिह्न हैं। वह क्षमा करने या कष्ट सहने में समर्थ होगा, इन्द्रियजेता होगा, गुणों से शोभित, निदान से रहित, संयम से बाहर विचरण करने वाली लेश्याओं से रहित, मैं और मेरा के 'भेदमूलक व्यवहारों से पृथक्, अकिंचन, आसक्ति की गांठे तोड़ने वाला और निर्लेप होता है। सुविमलवरकसभायणं व मुक्कतोए ..." जीवोव्व अप्पडिहयगती—इन सब पंक्तियों में अपरिग्रही साधु को विभिन्न उपमाए दे कर उसकी विशेषता बताई है। वह कांसी के बर्तन के समान जलसंसर्ग से रहित, शंख की तरह निरंजन, रागद्वेष व मोह से विरक्त, कछुए के समान इन्द्रियगोप्ता, शुद्ध सोने के समान शुद्ध आत्मस्वरूपपरायण, कमलपत्र की तरह निर्लेप, चन्द्रमा की तरह सौम्यस्वभावी, सूर्य की तरह तेजस्वी, सुमेरु की तरह अटल, समुद्र की तरह अक्षोभ्य एवं स्थिर, पृथ्वी की तरह सर्वस्पर्शसहिष्णु, राख से ढकी अग्नि के समान तपरूप अन्तस्तेज से देदीप्यमान, तेज से जलती हुई आग के समान, गोशीर्ष चन्दन के समान शीतल, शील की सुगन्ध से पूर्ण, सरोवर की तरह शान्त, दर्पणतल की तरह निर्मल, सहज स्वभाव से शुद्धस्वभावी, हाथी के समान शूरवीर, वृषभ के समान लिये हुए संयम भार को उठाने में समर्थ, सिंह की तरह अपराजेय, शरद्ऋतु के जल के समान स्वच्छहृदय, भारंड. पक्षीवत् अप्रमादी, गेंडे के सींग के तुल्य एकाकी, ठूठ की तरह कायोत्सर्ग में स्थिर, शून्यगृह के समान शरीर की विभूषा से दूर, सूने घर में या निर्वात स्थान में रखे हुए दीपक की तरह ध्यान में निष्कम्प, छुरे की तरह एक धारा रूप प्रवृत्ति वाला, सांप की तरह एकमात्र लक्ष्य की ओर.ष्टि रखने वाला, आकाश की तरह निरालम्ब, पक्षी की तरह से निरपेक्ष, सांप की तरह दूसरे के द्वारा बनाए हुए घर में निवास करने वाला, हवा की तरह अप्रतिबद्धविहारी, देह छोड़े हुए चेतन प्राणी की तरह निराबाध स्वतंत्रगतिशील होता है। ये सारे विशेषण अपरिग्रही के जीवन की विशेषताओं को प्रगट करते हैं। गामे गामे एगरायं, नगरे नगरे य पंचरायं दुइज्जते-अपरिग्रही किसी गाँव या नगर में भी बंध कर, जम कर या आसक्त बन कर नहीं रहता । जहाँ अच्छी-अच्छी स्वादिष्ट वस्तुएँ खाने-पीने को मिलती हों, लोगों की भावभक्ति हो, प्रतिष्ठा भी मिलती हो; वहाँ कच्चे साधक का मन अधिक दिन रहने को ललचाता है और अप्रिय, अनिष्ट ग्राम-नगर मिलने पर वहाँ से जल्दी भागने का जी करता है; पर अपरिग्रह
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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