SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 857
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८१२ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र मृगाधिपति सिंह की तरह अकेला ही अपराजेय, शरद्ऋतु के पानी के समान स्वच्छ हृदय वाला, भारंडपक्षी की तरह अप्रमत्त, गेंडे के सींग की तरह अकेला अन्य सहायक से रहित, ठठ की तरह ऊर्ध्वकायकायोत्सर्ग में स्थिर रहने वाला, सूने घर के समान शरीर संस्कारों से दूर है। वह सूने घर व सूनी दुकान के अन्दर निर्वातस्थान में रखे हुए दीपक के समान तथा शभध्यान के समान दिव्यादि उपसर्ग के समय भी निष्कम्प है। छुरे या उस्तरे की एक सरीखी धार के समान उत्सर्गमार्ग में एक धारा अखंड प्रवृत्ति वाला, सांप की तरह एकमात्र मोक्षमार्ग-रूप लक्ष्य की ओर दृष्टि रखने वाला, आकाश की तरह आलम्बनरहित, पक्षी को तरह सब प्रकार से परिग्रहमुक्त, सर्प के समान दूसरे के बनाए हुए स्थान में निवास करने वाला, वायु की तरह द्रव्यक्षेत्रकालभाव के प्रतिबन्ध से रहित, देहमुक्त चेतन की तरह स्वतंत्र अप्रतिहत बेरोकटोक गति अर्थात् विहार करने वाला मुनि हर एक गांव में एक रात्रि तथा हर एक नगर में पांच रात्रि विचरण करता हुआ इन्द्रियविजेता, परिषहजयी, निर्भय, विद्वान् -गीतार्थ, सचित्त, अचित्त और मिश्र सभी द्रव्यों में वैराग्ययुक्त, संग्रहवृत्ति से दूर, निर्लोभी, तीनों प्रकार के गर्व के भार से रहित अथवा परिग्रह के बोझ से हलका, आकांक्षारहित, जीवन और मरण की आशा से विमुक्त, चारित्रपरिणामों को खंडित करने से विरक्त होता है । ऐसा धीर स्थितप्रज्ञ साधु निरतिचार चारित्र का शारीरिक क्रिया अर्थात् जीवन से स्पर्श करता हुआ निरन्तर अध्यात्मध्यान में संलग्न उपशान्त साधु रागादि की सहायता से अथवा किसी सहायक से रहित एकाको चारित्र. धर्म का आचरण करे। , व्याख्या इस लम्बे सूत्रपाठ में शास्त्रकार ने अपरिग्रही साधु की ही विस्तृत रूप से परिभाषा दी है, ताकि आम आदमी अपरिग्रही साधक को पहिचान सकें। कई व्यक्ति घरबार, जमीन जायदाद, कुटुम्ब-कबीला आदि सब छोड़ कर एकांत जंगल में जा बैठते हैं; परन्तु वहां भी उनके मन में विविध सांसारिक वस्तुओं को ग्रहण करने और उनका उपभोग करने की प्रबल लालसा उठती रहती है। वे मन ही मन उन मनोज्ञ वस्तुओं को पाने के लिए अनेक प्रकार की उधेड़बुन करते रहते हैं. मन में विविध कामनायें संजोते रहते हैं, अनेक देवी-देवों की स्तुति, जाप, मनौती आदि करते रहते हैं । स्थूलदृष्टि से देखने वाले को वे बिलकुल अपरिग्रहमूर्तिसे लगेगे; एक लंगोटी भी
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy