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________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र ८१० विजेता (नि०भओ) निर्भय, (विऊ) विद्वान् - गीतार्थ ( सचित्ताचित्तमीसके हि) सचित्त हो, अचित्त हो या मिश्र हो, (देहि) सभी द्रव्यों में (विरायं गते) वैराग्ययुक्त, ( संचयात विरते) वस्तु का संचय करने से विरत, (मुत्त) लोभरहित ( लहुके) तीनों प्रकार के गर्व के भार से रहित अथवा परिग्रह के बोझ से हलका, (निरवकंखे) आकांक्षारहित, ( जीवियमरणासविप्यमुक्के) जीने और मरने की आशा से विमुक्त, ( निस्संधं ) चारित्र - परिणाम के विच्छेद से रहित, (निव्वणं) निरतिचार ( चरित) चारित्र का ( धीरे ) क्षोभरहित धीर या स्थितप्रज्ञ साधु (कायेण फासयंते ) शारीरिक क्रिया द्वारा पालन करता हुआ ( सततं ) निरन्तर (अज्झप्पज्झाणजुत्ते) अध्यात्मध्यान में संलग्न ( निहुए ) उपशान्त साधु ( एगे ) रागादि की सहायता से अथवा सहायक से रहित एकाकी (धम्मं चरेज्ज) चारित्र धर्म का आचरण करे । समान हैं । वह सम्मान मूलार्थ - इस प्रकार वह अपरिग्रही संयमी साधु धनादि के लोभ से मुक्त होता है, जमीनजायदाद, धनसम्पत्ति का त्यागी होता है । आसक्तिरहित होता है । परिग्रह में उसकी जरा भी रुचि नहीं होती । धर्मोपकरणों पर भी ममत्व से रहित होता है । वह स्नेहबन्धन से रहित, सर्वपापों से विरक्त है । वसूले से काट कर अपकार करने वाले और चन्दन के समान उपकार करने वाले दोनों पर समबुद्धि रखता है । उसकी दृष्टि में तिनका और मणि या मोनी तथा ढेला और सोना दोनों और अपमान दोनों अवस्थाओं में सम रहता है । उसने पापकर्मरूपी रज या विषयों में रय उत्सुकता को शान्त कर दिया है । वह रागद्वेष का शमन करने वाला है । जो पांचसमितियों से समित-युक्त, सम्यग्दृष्टि तथा समस्त त्रस-स्थावर जीवों पर समभावी होता है, वह श्रमण- तपस्वी है या सम मन वाला है अथवा शमन -शा तकषाय है, वही श्रुतधर - शास्त्रज्ञ है, संयम में उद्यत या उद्यमी है, वही स्वपर - कल्याण का साधक है, समस्त प्राणियों का आश्रयरूप है, वह समस्त विश्व के प्राणियों के प्रति वात्सल्य से ओतप्रोत है, सत्यभाषी है, तथा संसार के अन्त किनारे पर स्थित है। उसने संसार परिभ्रमण को नष्ट कर दिया है । वह अज्ञानी जीवों को सतत होने वाले भावमरणों से पार पहुँच गया है, समस्त संशयों से परे हो गया है । वह पांच समिति- तीन गुप्ति रूपी आठ प्रवचनमाताओं के द्वारा आठ कर्मों की गांठें खोलता है, आठ मदों - अहंकारों का उसने मर्दन कर दिया है, वह अपने सिद्धांत, आचार या प्रतिज्ञा के पालन में कुशल होता है । सुख और दुःख उसके
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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