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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र पात्र, पात्र बांधने की झोली, पात्र केसरिका-पात्रप्रमार्जनी पोत्तिका, पात्र रखने का कम्बल का टुकड़ा, भिक्षा के अवसर पर पात्रों के ढकने के तीन वस्त्र खण्ड-पल्ले, पात्रों को धल से बचाने के लिए उनके चारो ओर लपेटा जाने वाला वस्त्र, पात्र प्रमार्जन करने का कम्बलखण्ड, दो सूती और एक ऊनी-यों तीन चादरें शरीर पर ओढ़ने के लिए, रजोहरण, चोल पट्टा और मुखवस्त्र इत्यादि उपकरण हैं। ये सब उपकरण भी संयम की वृद्धि या पुष्टि के लिए तथा हवा, धूप, डांस, मच्छर और ठंड से अपनी रक्षा के लिए हैं। संयमी साधु को इन्हें रागद्वष से रहित होकर धारण करना चाहिए। साधु को प्रतिदिन इनका प्रतिलेखन, प्रस्फोटन-(झटकना) तथा प्रमार्जन करते हुए इन पात्र, भाण्ड तथा उपफ़रणों को रातदिन सतत अप्रमत्त (सावधान) होकर रखना और लेना-उठाना चाहिए। .
व्याख्या पूर्वोक्त सूत्रपाठ में खासतौर से अन्तरंग परिग्रह से निवृत्ति के लिए एक बोल से लेकर तेतीस बोल तक के शिक्षावचनों का प्रतिपादन शास्त्रकार ने किया था। अब इस सूत्रपाठ में अपरिग्रहवृत्ति का माहात्म्य एवं उसकी साधना के लिए सहायक गुणों का निरूपण करते हुए अपरिग्रह वृत्ति की साधना के लिए किन-किन कल्पनीय वस्तुओं को ग्रहण करना योग्य है तथा किन-किन कल्पनीय वस्तुओं को भी किस हालत में ग्रहण करना उचित नहीं है और किस हालत में उचित है ? इस प्रकार बाह्यपरिग्रह भाव से मुक्त या निलिप्त रहने का स्पष्ट विवेक बताया है।
___ जब तक साधक के दिल-दिमाग में यह बात भली भाँति जम न जाय कि अपरिग्रह वृत्ति से साधुजीवन कितना शान्त, निश्चिन्त, भाररहित, स्वपरकल्याणसाधना में उपयोगी, आत्मिकसुख सम्पन्न, निरपेक्ष, नि:स्पृह, आकांक्षारहित एवं निर्द्वन्द्व बन जाता है ; तब तक वह सहसा अपरिग्रहसंवर के उपाय में प्रवृत्त नहीं होगा। यदि श्रद्धावश प्रवृत्त हो भी गया तो आगे चल कर संसार के विविध लुभावने प्रलोभनों, आकर्षणों या इन्द्रियविषयों के मायाजाल में फंस कर बाहर से अपरिग्रही वेष रखकर भी अन्दर ही अन्दर परिग्रही बना रहेगा, दम्भ करके स्वरपरवंचना करता रहेगा। इसी हेतु से शास्त्रकार ने सर्वप्रथम अपरिग्रहसंवरद्वार के पाँचों प्रकार के संवरों में श्रेष्ठ वृक्ष की सांगोपांग उपमा दी है।
अपरिग्रहसंवर : श्रेष्ठ संवरवृक्ष-संसार में वृक्ष ही एक ऐसा पदार्थ है, जो जीवों की जीवनशक्ति का पोषण करता हुआ, समस्त इन्द्रियविषयों की पूर्ति