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________________ प्रथम अध्ययन : हिंसा - आश्रम ३७ वह युद्ध करता है । फिर भी उसमें मर्यादित हिंसा तो होती ही हैं । इसलिए कटकमर्दन को प्राणिवध का पर्यायवाची कहा गया है । १६ - व्युपरमण – प्राणों से उपरत करना - रहित करना व्युपरमण है । यह भी प्राणवध का ही भाई है । १७- परभव संक्रामकारक – परभव — दूसरे जन्म में पहुँचाने वाला परभवसंक्रमणकारक कहलाता है । प्राणों का नाश करने या होने पर ही जीव इस भव को छोड़कर परभव में गमन करता है । जिस प्रकार किसी व्यक्ति को अपना जमाजमाया घर छुड़ा कर दूसरे नये घर में जाने को विवश कर देने पर उसे अत्यन्त दुःख होता है, क्योंकि उसे नये घर में जाने के लिए पहले तो नया घर बनाना या ढूंढना पड़ेगा, उसके बाद सारा सामान उठाकर यहाँ से वहाँ ले जाना पड़ेगा । इसी प्रकार किसी प्राणी को इहभव रूपी घर को छुड़ाकर परभवरूपी नवगृह में जाने से मोह - ममत्ववश अत्यन्त दुःख होता है, और यह परभव पहुंचाना भी प्राणी के प्राणों को बुरी तरह से नष्ट करने या मारने पर ही होता है । इसलिए अत्यन्त दुःखकारक होने से परभवसंक्रामकारक को भी प्राणवध के समान कहा गया है । १८ - दुर्गतिप्रपात - - दुर्गति — नरक तिर्यञ्चरूप दुष्टगति के गड्ढे में गिराने वाला होने से प्राणवध को दुर्गतिप्रपात कहा गया है । कई धर्मान्ध लोग यह कहते हैं, कि यज्ञ में पशुओं का होमना - वध करना हिंसा नहीं है । 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' इस धर्मसूत्र को प्रस्तुत करते हैं और कहते हैं कि यह हिंसा हिंसा ही नहीं, तो हमें दुर्गति क्यों मिलेंगी ? परन्तु हिंसा, चाहे वह वैदिकी हो या अवैदिकी ; वह तो परप्राणिवधरूप होती है, इसलिए दुर्गति का कारण अवश्य होगी। जिसमें धर्म के नाम पर भोलेभाले लोगों को अमुक स्वार्थ का प्रलोभन देकर निर्दोष-निरपराध पशुओं का वध तो साधारण हिंसा से भी बढ़कर है । अतः हिंसा दुर्गतिपात का कारण होने से दुर्गतिप्रपात को इसका पर्यायवाची बताया गया । १९ - पापकोप - पाप को प्रकुपित करने या उत्तेजित करने वाला पापकोप है । हिंसा भी पाप को उत्तेजित करने — बढ़ावा देने वाली होती है, इसलिए इसका नाम पापकोप ठीक ही रखा है । अथवा प्राणवध के पापरूप होने से और कोपकारी होने से दोनों को मिलाकर इसका नाम पापकोप रखा गया है । २० - पापलोभ या पापल― जो प्राणी को पाप में लुब्ध कर देता है, पाप में रचापचा देता है, वह पापलोभ है । प्राणिवध आत्मा को पाप में लुब्ध करा देने वाला अथवा लोभी बना देने वाला होने से इसका पापलोभ नाम यथार्थ दिया गया है । अथवा पाप यानी अपुण्य को प्राणी के साथ चिपकाने वाला होने से भी इसे पापलोभ ठीक ही कहा गया है । वास्तव में प्राणिवध वधकर्त्ता को पापकर्म से संश्लिष्ट कर
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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