________________
७४६
श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र साधुजीवन खो बैठेगा। साधुजीवन का सर्वस्व-ब्रह्मचर्य गँवा देगा। अब्रह्मचर्य के चंगुल में फंसकर अपनी की-कराई साधना की कमाई को मिट्टी में मिला देगा। एक बार अनमोल ब्रह्मचर्यरत्न को खो देने पर फिर वह हाथ आना अत्यन्त दुष्कर है। इस लिए ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए स्थानत्यागसमिति भावना बताई गई है । ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए साधु को ऐसे स्थानों में नहीं रहना चाहिए, जहाँ स्त्रियाँ सोती हों, बैठती हों, घर के द्वार से बार-बार उनका आवागमन होता हो, घर के आंगन में जहां उनका पड़ाव हो, ऐसा झरोखा-जहां से स्त्रियों पर बार-बार दृष्टि पड़ती हो, या ऐसा ऊँचा स्थान, जहां से बहुत दूर तक गृहस्थ के घर की चीजें तथा सांसारिक प्रवृत्तियां दिखाई देती हों, घर का पिछला हिस्सा, जहां पर स्त्रियों पर दृष्टि पड़ती हो, या स्नानघर, शृङ्गारघर आदि स्त्रियों के आवागमन के स्थान, तथा वेश्याओं का स्थान हो अथवा आसपास वेश्याओं का मोहल्ला हो, या जहां स्त्रियां बारबार बैठ कर मोह, द्वेष एवं रतिराग बढ़ाने वाली अनेक प्रकार की गप्पें लड़ाती हों, ऐसे स्थान साधु के निवास के लिए वर्जनीय हैं। इसके अलावा स्त्रीसंसर्ग से युक्त ऐसे अन्य स्थान, जहां रहने से स्त्रियों का स्वच्छन्द विलास आदि देखकर चित्त में भ्रान्ति पैदा हो जाय कि मैं ब्रह्मचर्य का पालन करूं या न करूँ ? अथवा जहाँ ब्रह्मचर्य का सर्वथा भंग मन-वचन-काया से होना संभव हो, अथवा जहां ब्रह्मचर्य से मानसिक या वाचिक रूप से भ्रष्टता का होना संभव हो या जहां का वातावरण शृङ्गार.. रसपूर्ण देखकर साधक को ब्रह्मचर्य के बारे में पश्चात्ताप हो, मैथुन-प्रवृत्ति के लिए . तीव्रचिन्तन रूप आर्तध्यान या रौद्रध्यान हो, ऐसे स्थानों पर भी साधु का निवास करना योग्य नहीं है । चाहे साधु को थोड़ा कष्ट भी होता हो, रद्दी और जीर्णशीर्ण प्रतिकूल स्थान ही मिलता हो, लेकिन ब्रह्मचर्य रत्न की सुरक्षा के लिए वहां रहना अभीष्ट हो तो पाप भीरु एवं जैसे-तैसे स्थान में रहने के अभ्यासी साधु को वैसे स्थान में रहने के लिए अपने मन को तैयार कर लेना चाहिए, मगर स्त्रीसंसर्गयुक्त अयोग्य, किन्तु बढ़िया स्थ न में साधु को हर्गिज नहीं ठहरना चाहिए। यही इस भावना का प्रयोग है।
___ इस प्रकार के चिन्तन के प्रकाश में जो साधु अपनी अन्तरात्मा को स्त्री. संसक्त स्थानत्याग समिति की भावना से सुसंस्कृत कर लेता है, उसका मन अभ्यास से ब्रह्मचर्य में लीन हो जाता है, फिर उसकी इन्द्रियां विषयों के बीहड़वन में नहीं भटकतीं । वह जितेन्द्रिय और गुप्तब्रह्मचारी हो जाता है ।
स्त्री कथाविरतिसमिति भावना का प्रयोग–ब्रह्मचर्य विघातक तत्त्वों का दूसरा मोर्चा लगता है-स्त्रियों के सम्बन्ध में विविध प्रकार की कामोत्तेजक कथा क' । साधु के पास शास्त्रीय ज्ञान और अनुभवज्ञान होता है, वही उसके दर्शन और