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________________ ७४० श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र (न धम्मस्स भंसणा) न ब्रह्मचर्य धर्म से पतन ही हो, (एवं) पूर्वोक्त प्रकार से (पणीयाहारविरति समितिजोगेण) स्वादिष्ट एवं गरिष्ठ आहार से विरक्तिरूप समिति की चिन्तनपूर्वक प्रवृत्ति से (अन्तरप्पा भावितो भवति) ब्रह्मचारी को आत्मा ब्रह्मचर्य के दढ़ संस्कारों से युक्त हो जाती है, (आरय-मण-विरतगामधम्मे) उसका मन ब्रह्मचर्य में तल्लीन हो जाता है और उसकी इन्द्रियाँ विषयों से विरक्त हो जाती हैं । फिर वह (जिइदिए) जितेन्द्रिय होकर (बंभचेरगुत्त) ब्रह्मचर्य का पूर्णतया सुरक्षक बन जाता है। (एवं) इस प्रकार (इणं) इस (संवरस्स दारं) चतुर्थ संवर ब्रह्मचर्य संवर का द्वार (मणवयणकायपरिरक्खिएहि) मन, वचन और काया से सुरक्षित (इमेहि पंचहि वि कारणेहिं) इन-पूर्वोक्त पांचकारणों-पंचभावनायोगों के द्वारा (सम्म) सम्यक् रूप से (संवरियं) सुरक्षित (होई) हो जाता है और (सुप्पणिहियं) अच्छी तरह दिलदिमाग और संस्कारों में जम जाता है। (धितिमया मतिमया) धृतिमान् और बुद्धिमान साधक को (एसो जोगो) यह पूर्वोक्त ब्रह्मचर्य सुरक्षा के लिए पांच भावनाओं का चिन्तनसहित प्रयोग (निच्चं आमरणंत) जीवन के अंत तक प्रतिदिन, (णेयध्वो) करना चाहिए, जो कि (अणासवो) आश्रवरहित है, (अकलुसो) निर्मल है, (अच्छिद्दो) कर्म प्रवेश के लिए छिद्र से रहित (अपरिस्सावी) कर्मबन्धन रहित और (अंसफिलिट्ठो) संक्लिष्ट परिणामों से रहित है। (सुखो) यह पवित्र है, और (सव्वजिणमणुन्नातो) समस्त जिनवरों से अनुज्ञात है। (एवं) इस प्रकार (चउत्थं) चौथा (संवरदारं) ब्रह्मचर्य नामक संवरद्वार (फासियं) उचित काल में अंगीकार किया हुआ, (पालिय) पालन किया गया, (सोहितं) अतिचाररहित आचरण किया हुआ, (तीरितं) पूर्णरूप से अन्त तक पालन किया गया, (किट्टितं) दूसरों के लिए कथन किया गया (आणाए अणुपालिय) भगवान् को आज्ञापूर्वक निरन्तर पालन किया गया (भवति) होता है। (एवं) उक्त प्रकार से (नायमुणिणा) ज्ञातवंश में उत्पन्न मुनि अर्थात् भगवान् महावीर स्वामीद्वारा (इणं) यह (सिद्धवरसासणं) सिद्धों का श्रेष्ठ शासन (पन्नवियं) सामान्य रूप से निरूपित है, (परूवियं) विशेष रूप से विवेचन किया गया है, (पसिद्ध) प्रमाणों और नयों द्वारा सिद्ध किया गया है, (आघवियं) भलीभांति हृदय में जमा दिया गया है, (सुवेसियं) भव्यजीवों के लिए समुपविष्ट और (पसत्यं) मंगलस्वरूप (चउत्थं संवरदारं) चौथा ब्रह्मचर्य संवरद्वार (समत्त) समाप्त हुआ। (इति) इस प्रकार (बेमि) मैं (सुधर्मा स्वामी) कहता हूँ।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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