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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
देवेन्द्र आदि लोकपूज्य व्यक्ति तीर्थंकर एवं गणधर आदि पूजा करते हैं, और गणधर आदि महापुरुष ब्रह्मचर्य की अर्चना करते हैं, भक्तिपूर्वक वे आराधना-साधना करते हैं । अतः ब्रह्मचर्य पूज्यों का भी पूज्य है। ब्रह्मचर्यं संसार के समस्त उत्तम मंगलों का मार्ग-उपाय है । इसका आशय यह है कि मंगल का अर्थ होता है - मं-पाप को, गलं -गालने वाला, अथवा मगं-सुख को लं—देने वाला। संसार में अहंद्भक्ति आदि जितने भी मंगलमय कार्य हैं, उन सबका मार्ग ब्रह्मचर्य है। क्योंकि ब्रह्मचर्य पालन करने से आत्मा विषय राग आदि से निवृत्त होकर अर्हद्भक्ति एवं व्रतधारण आदि मांगलिक कार्यों में प्रवृत्त होती है । अतः संसार के समस्त उत्तम मंगलभूत कार्यों का उपाय ब्रह्मचर्य को माना गया है। फिर यह ब्रह्मचर्य दुर्धर्ष, अजेय. अपराभवनीय है। अतः यह अकेला ही ऐसा गुण है, जो सब गुणों का नेतृत्व करता है। मतलब यह है कि ब्रह्मचारी का कोई तिरस्कार नहीं कर सकता। कदाचित् कर भी दे तो वह शीघ्र ही उससे प्रभावित होकर उसके चरणों में नतमस्तक हो जाता है। ब्रह्मचर्य के प्रभाव से सर्प हार के समान, विष अमृत के समान और शत्रु मित्र के समान हो जाता है। इसमें ऐसी अद्भुत शक्ति है। क्षमा आदि सभी लोकोत्तरगुण इसकी ओर स्वतः खिंचे चले आते हैं । इस एक गुण के प्राप्त होने पर अन्य सब गुण स्वतः प्राप्त हो जाते हैं, धीरता, क्षमा, गंभीरता, तितिक्षा, सरलता, आदि गुण ब्रह्मचर्य के अनुचर बन जाते हैं । ब्रह्मचर्य मोक्षमार्ग का अलंकार है। इसका तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण कर्मों का सर्वथा आत्मा से पृथक् होना मोक्ष है। उसका मार्ग (उपाय) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है। इनको भूषित करने वाला ब्रह्मचर्य है। क्योंकि ब्रह्मचर्य के बिना ये सम्यग्दर्शनादि अपने कार्य में सफल नहीं हो सकते । ब्रह्मचर्य की सहायता से ही ये कृतकार्य होते हैं । इसलिए इसे मोक्षमार्ग को अलंकृत करने वाला माना गया है। ब्रह्मचर्य उत्तम रसायन है, जिसका शुद्ध रूप से सेवन करने पर जीवन में नई चमक दमक आ जाती है। शास्त्रकार कहते हैं कि इसका शुद्ध आचरण करने पर मामूली ब्राह्मण भी उत्तम ब्राह्मण बन जाता है, साधारण श्रमण भी सुश्रमण या सामान्य तपस्वी भी सुतपस्वी बन जाता है: सामान्य साधु भी स्वपरकल्याणसाधक उत्तम साधु बन जाता है, अप्रसिद्ध ऋषि भी पटकायरक्षक सुऋ षि बन जाता है, मुनि भी सुमुनि बन जाता है । वही वास्तव में संयमी है, वही वास्तव में भिक्षु है, जो ब्रह्मचर्य का शुद्ध आचरण करता है । सचमुच, ब्रह्मचर्य के शुद्ध पालन से रहित ब्राह्मण, श्रमण आदि केवल नामधारी ही ब्राह्मण, श्रमण आदि हैं। अब्रह्मचर्यसेवी श्रमण, साधु आदि केवल वेषधारी हैं । कहा भी है- .
"सकलकलाकलापकलितोऽपि कविरपि पण्डितोऽपि हि। प्रकटितसर्वशास्त्रतत्त्वज्ञोऽपि हि वेदविशारदोऽपि हि॥