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________________ नौवां अध्ययन : ब्रह्मचर्य - संवर ७१६ सुन्दर से सुन्दर नवयौवना भी आकर उन्हें प्रार्थना करे, तो भी वह · चलायमान नहीं होते । साथ ही ब्रह्मचर्य उन्हीं का दागरहित विशुद्ध रहता है, या वे ही ब्रह्मचर्य का शुद्ध रूप से पालन करते हैं, जो जाति कुल आदि गुणों से सम्पन्न महापुरुष होते हैं । कुलीन और उत्तम जाति के साधक मरना पसन्द कर लेगें, लेकिन ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट कदापि नहीं होंगे । वे मन से भी पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करने को सदा उद्यत रहेंगे । नीच जाति और नीच कुल के व्यक्तियों में प्रायः उत्तम संस्कार न होने से वे ब्रह्मचर्य भंग को हेय एवं घृणित नहीं समझते । उनकी संतान भी परम्परा से ब्रह्मचर्य के सुसंस्कारों से शून्य होती है । उत्तम कुलीन महापुरुष शुद्ध ब्रह्मचर्य से सम्पन्न होते हैं, जो धीरों में भी महासत्वशाली हैं। बड़े-बड़े अवसरों पर भी उनकी धीरता अटल रहती है, उनकी ब्रह्मचर्य निष्ठा को स्वर्ग की नृत्य करती हुई या कटाक्ष के द्वारा कामवाण फेंकती हुई सुन्दर अप्सराएँ भी डिगाने में असमर्थ हैं । तीसरे वे पुरुष ब्रह्मचर्य में अविचल रहते हैं, जिनके रोम-रोम में धर्म रमा रहता है । जो धर्म के रहस्य को समझकर तदनुकूल आचरण करते हैं, ब्रह्मचर्य धर्म जिनके रगरग में भरा है; उनके धर्म संस्कार इतने परिपक्व होंगे कि वह प्राण जाने पर भी अब्रह्मचर्य सेवन नहीं करेंगे । और चौथे धृतिमान् व्यक्ति भी ब्रह्मचर्य के आग्नेय पथ पर अविचल रहते हैं । उन्हें कोई भी शक्ति ब्रह्मचर्य के पथ से हटा नहीं सकती । समाज की कुलपरम्पराएँ या रूढ़ियां भी उन्हें ब्रह्मचर्य से डिगाने में असमर्थ रहती हैं । परन्तु जो व्यक्ति धृतिमान नहीं होता, वह समाज की परम्पराओं एवं कुल की रीति रिवाजों के सामने झुक जाता है । प्राचीन काल में एक रिवाज था कि पुत्रोत्पत्ति के बिना वंश परम्परा का उच्छेद हो जायगा, फलतः स्वर्ग नहीं मिलेगा, इसलिए वंश परम्परा की सुरक्षा और स्वर्ग के लिए विवाह करना चाहिए और संतानोत्पत्ति करनी चाहिए। जैसा कि वे कहते थे "अपुत्रस्य गतिर्नास्ति, स्वर्गो नैव च नैव च । तस्मात्पुत्रमुखं दृष्ट्वा, पश्चाद् धर्ममाचरेत् ॥” अर्थात् 'पुत्रहीन की गति नहीं होती । फलतः उसे स्वर्ग नहीं मिलता, कदापि नहीं मिलता। इसलिए पुत्र का मुख देखकर ही बाद में चारित्र धर्म ( मुनिधर्म) अंगी - कार करना चाहिए ।' परन्तु धृतिमान और धर्मज्ञ पुरुष इस रीति को नहीं मानते । करते हुए कहते हैं— "अनेकानि सहस्राणि, कुमारब्रह्मचारिणाम् । दिवंगतानि विप्राणामकृत्वा कुलसंततिम् ॥” प्रमाण प्रस्तुत
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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