SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 758
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७१३ नौवां अध्ययन : ब्रह्मचर्य-संवर नाच, यह तो इन्द्रिय विषयों के प्रति रति प्रीति, पिता आदि के प्रति आसक्ति (राग), द्व ेष, मोह - मृढ़ता को बढ़ाने वाले तथा कुत्सित हृदय बना देने वाले प्रमाद दोष अथवा साधु के लिए आचरणीय हर प्रवृत्ति के लिए इस प्रकार कहना कि 'इसमें क्या रखा है ?' इस प्रकार के प्रमाददोषयुक्त ज्ञानाचारादि से बहिर्वर्ती पार्श्वस्थों - साध्वाभासों के आचरण जैसा आचरण बना लेना, घी, तेल आदि की मालिश करना, तेल लगा कर स्नान करना, निरन्तर कांख, सिर, हाथ, पैर और मुंह धोना, हाथ पैर आदि को दबवाना, शरीर के अवयवों को संवारना, शरीर का अच्छी तरह मर्दन करना, चंदन आदि का लेप करना, सुगन्धित चूर्ण (पाउडर) से शरीर तथा वस्त्रादि को सुगन्धित करना, अगरबत्ती आदि से धूप देना, शरीर को सजाना तथा नख केश एवं वस्त्रादि का संवारना - ये सब बाकुशिक ( बकुश - चितकबरे चारित्र वाले) कर्म करना तथा ठहाका मार कर हंसना, विकारसहित बोलना, नाच देखना, अश्लील गीत गाना या सुनना, वाद्य बजाना या सुनना, नटों के खेल तमाशे, नर्तकों के कलाबाजों की विविध कलाबाजियां और पहलवानों की कुश्तियां देखना तथा विदूषकों के तमाशे देखकर तदनुकूल हास्य चेष्टाएँ करना, तथा जो वस्तुएँ शृंगार रस की घर हैं, इस प्रकार की दूसरी बातें भी जो संयमी साधु के तप, संयम और ब्रह्मचर्य की घातक और उपघातक हैं, वे ब्रह्मचर्य का निरन्तर आचरण करने वाले के लिए सदा - सर्वदा वर्जनीय हैं, यानी ब्रह्मचर्य का साधक इन सब अब्रह्मचर्यवर्द्धककामोत्तेजक बातों से दूर रहे। इन आगे कहे जाने वाले तप, नियम और शील के प्रवृत्ति योगों से ब्रह्मचर्यसाधक अन्तरात्मा को नित्य निरन्तर भावित करे, यानी इन संस्कारों से जीवन को सुदृढ़ करे वे कौन-कौन से प्रवृत्तियोग हैं ? इसके उत्तर में कहते हैं - स्नान न करना, दंत धावन न करना, पसीने का मैल और शरीर के अन्य मैल विशेषों का धारण करना, मौनव्रत रखना, केशलोच करना, क्षमा, ( कष्ट सहिष्णुता या तितिक्षा ), इन्द्रियदमन आचेलक्य- वस्त्राभाव या कमवस्त्र रखना, क्षुधा पिपासा सहन करना, लघुताद्रव्य से अल्प उपकरण रखना और भाव से नम्रता रखना, सर्दी-गर्मी सहना, श्रेष्ठ शय्या या भूमि पर बैठना, तमाम आवश्यक वस्तुओं की याचना के लिए दूसरे के घर में प्रवेश करना, अभीष्ट आहार आदि के मिलने पर मान और न मिलने पर दैन्य न करना, निन्दा सहन करना, डांस-मच्छर आदि का
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy