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________________ - श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र सम्यक् प्रकार-या समिति से युक्त (भोतव्वं) उसका उपभोग करना चाहिए, (न सायसूपाहिक) साग, दाल अधिक न खाए, (न खद्ध) अच्छे-अच्छे खाद्य पदार्थों को पहले न खाए, (ण वेगियं) कौर को जल्दी-जल्दी न निगले, (न त रियं) ग्रास को झटपट मुंह में न डाले, (न चपलं) हाथ, गर्दन आदि बहुत हिला-डुलाकर भोजन न करे, (न साहसं) बिना बिचारे सहसा-एकदम भोजन पर टूट न पड़े, (परस्स य) और दूसरे को (पीलाकर सावज्ज) पीड़ा करने वाला तथा सावध-पापयुक्त (न) भोजनादि न करे । (तह भोतव्वं जह से ततियवयं) उस प्रकार से भोजनादि करे, जिससे उस साधु का त तीयव्रत (साधारणपिंडपायलाभे) साधारण -सर्वसामान्यरूप में सांघाटिक-सबका इकट्ठा आहार पानी उपधिवस्त्रादि का लाभ प्राप्त होने पर जो साधु का सुहुमं) सूक्ष्म (अदिन्नादाणवेरमणं) अदत्तादानविरमण रूप महावत है वह (न सीदति) जरा भी भंग न हो । (एवं) इस प्रकार (साहारण पिंडवायलाभे समितिजोगेण) सर्व साधारण रूप से सांघाटिक भोजनपात्रादि का लाभ होने पर इस सम्यक् प्रवृत्ति–समिति के योग-प्रयोग से (भावितो) संस्कारयुक्त (अंतरप्पा) साधु का अन्तरात्मा (निच्चं) सदा (अहिकरण-करण-कारावणपावकम्मविरते, दूषित आचरण करने-करवाने की पापक्रिया से विरक्त संयमी (दत्तमणुन्नायउग्गहरुई) दत्तानुज्ञात वस्तु के ग्रहण करने को रुचिवाला (भवइ) होता है। (पंचमग) पांचवीं सार्मिक विनयकरण भावना का स्वरूप इस प्रकार है(साहम्मिएसु विणओ पउजियव्वो) साधर्मी साधुओं के प्रति विनय का प्रयोग करना चाहिए । (उवकरण पारणासु) रुग्ण, अशक्त,वृद्ध आदि अवस्थाओं में दूसरे सार्मिकसाधुओं का उपकार-वैयावृत्यव्यवहार में तथा तपस्या के पारणा में (विणओ) इच्छाकारादिरूप में विनय का (पउजियव्वो) व्यवहार करना चाहिए। (वायणा-परियट्टणासु) सूत्र आदि का पाठ पढ़ने में तथा पढ़े हुए पाठ की आवृत्ति करने के सम्बन्ध में (विणओ) वन्दनादि के रूप में विनय का (पउजियव्वो) प्रयोग करना चाहिये । (दाण-गहण-पुच्छणासु) भिक्षा में प्राप्त आहारादि का ग्लान आदि साधुओं को वितरण करने, दूसरे साधुओं द्वारा दिये हुए पदार्थ का ग्रहण करने तथा भूले हुए सूत्रार्थ के विषय में पूछने के समय (विणओ पजियव्वो) विनय-प्रयोग करना चाहिए। (य) और (एवमादिसु) ये और इत्यादि प्रकार के (अन्न सु कारणसतेसु) दूसरे सैकड़ों कारणों को लेकर (विणओ पजियन्वो) विनय का प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि (विणओवि) विनय भी (तवो) तप है, और (तवोवि धम्मो) तप भी धर्म है, धर्म का
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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