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________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र ___ अचौर्य संवर का अनाराधक कौन व आराधक कौन ?-शास्त्रकार ने एक बात का स्पष्ट निर्देश किया है कि किस प्रकार का साधु अचौर्य का सम्यक् आराधक हो सकता है ? और कौन इसका विराधक बनता है। वास्तव में आराधना-विराधना का दारोमदार वस्तु के ग्रहण करने या न करने पर निर्भर नहीं है । जहाँ साधक की दृष्टि और वृत्ति निर्लोभी और परोपकारी, पर-हितैषिणी, निःस्वार्थ सेवा एवं दूसरों को दान देने की बन जाती है, वहाँ व्यक्ति को अपने लिए नहीं, अपितु साधु-समूह के लिए संग्रह करना और साधुओं को यथोचित व भली-भाँति वितरित करना, दोष नहीं, गुण बन जाता है । वहीं अचौर्य की आराधकता है। अचौर्य वृत्ति वाला साधु अपने आपको संघ और गुरु के चरणों में जब समर्पण कर देता है तो उसे अपने लिए खाने, षोने तथा वस्त्र-पात्र आदि चीजों की कोई चिन्ता नहीं करनी पड़ती। वह आत्मसंतुष्ट, आत्मतृप्त और अलमस्त बन जाता है । और किसी प्रशंसा आदि के बदले की भावना के बिना निःस्वार्थ भाव से रोगी, वृद्ध, आचार्य आदि की विविध प्रकार से सेवा करता है । कोई वस्तु न मिले तो उसे प्राप्त करने की चिन्ता नहीं होती और मिल जाय तो उसे अधिकाधिक संग्रह की भी इच्छा नहीं होती। उसका जीवन सहजभाव में चलता रहता है। वह किसी चीज के न मिलने पर किसी दाता या अन्य साधक की निन्दा नहीं करता और मनोज्ञ वस्तु के मिल जाने पर अपने भाग्य का बखान नहीं करता । साथ ही उसकी निर्लोभता इतनी बढ़ जाती है कि वह अपने लिए किसी अप्रीतिकर घर से या व्यक्ति से आहार, पानी या वस्त्रपात्रादि उपकरणों की याचना करने नहीं जाता, न कभी आचार्य, उपाध्याय, ग्लान, चिररोगी आदि के नाम से या इनके बहाने से कोई भी वस्तु ग्रहण ही करता है, न किसी को दानादि धर्म के आचरण से विमुख करता है,दान और सुकृत का अपलाप भी नहीं करता। न ही अपने साधर्मियों की सेवा आदि करने के बाद उसे कोई पश्चात्ताप होता है। उसे कभी अकेले अपने लिए किसी चीज को अलग रखने का कोई मोह नहीं होता। वह किसी भी चीज पर आसक्ति रख कर अपने लिए संग्रह नहीं करता। वह तो साधुओं में से जिम साधु को भी साधुयोग्य किसी चीज की जरूरत हो,उस साधु को उदारता पूर्वक दे देता है । उसके स्वभाव में ही अपने लिए संग्रह करना नहीं होता। वह यथोचित वस्तुओं का संग्रह करने एवं उपकार करने में कुशल होता है। यही अचौर्य व्रत के आराधक की निशानी है। अचौर्य व्रत की मस्ती उसके मन,चेहरे और शरीर पर झलकती रहती है । परन्तु अचौर्य के अनाराधक में ठीक इससे उलटी वृत्ति और चेष्टा मिलती है। वह किसी साधु की सेवा किये बिना ही, आचार का सम्यक् पालन किये बिना ही, दीर्घ तपस्या किये बिना ही नाम लूटना चाहता है। उसके सन में यही भावना बनी रहती है कि आज कहाँ से, कौन-सी चीज लाऊँ ? वह तपस्या, आचार, वचन, रूप
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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