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________________ ६७६ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र उठते हैं । जब न्याय-नीतियुक्त तरीके से मनोज्ञ पदार्थ नहीं मिलता तो वह अनैतिक उपाय अपनाता है उसी का नाम चोरी है । इसलिए इस महाव्रत को धारण करने पर तृष्णाओं और इच्छाओं पर रोक लग जाती है; मन, वचन, हाथ, पैर आदि सब नियंत्रित हो जाते हैं । तब स्वाभाविक है कि साधक बाह्य और आभ्यन्तर रूप से निर्ग्रन्थ बन जाता है । आत्मा जब परिग्रह के बोझ से हलका हो जाता है, तब वह अपने चारित्र धर्म की चरमसीमा में स्थित हो जाता है । तब वह साधक परद्रव्यग्रहण से विमुख हो जाने से लोभमुक्त और राजा आदि के भय से भी मुक्त बन जाता है । इसी बात की साक्षी शास्त्रकार देते हैं- "महव्वतं गुणव्वतं परदव्व विमुत्त ।" कुछ शंकाएँ और उनका समाधान - यह ठीक है कि बिना दिया हुआ या दूसरे के स्वामित्व का पदार्थ उसकी इच्छा, अनुमति या आज्ञा के बिना लेने या उसका उपभोग करने से चोरी का दोष लगता है, किन्तु दूसरों की निन्दा करने से, दूसरों के दोष प्रगट करने से, चुगली खाने से, ईर्ष्या करने से या दान में अन्तराय डालने या दान या सुकृत का अपलाप करने से कैसे चोरी का दोष लग जाता है ? इन सबका समाधान वृत्तिकार निम्नोक्त गाथा द्वारा करते हैं"सामी जीवादत्तं तित्थयरेणं तहेव य गुरुर्हिति " अर्थात् – 'जो वस्तु उसके स्वामी से प्राप्त नहीं हुई है तथा जिसकी आज्ञा तीर्थंकरों ने और गुरुओं ने नहीं दी है, उसका उपयोग करना चोरी है ।'. किसी की निन्दा करना, किसी के दोष देखना या प्रगट करना, चुगली खाना, ईर्ष्या- डाह करना या दान में अन्तराय डालना या भगवत्प्ररूपित सिद्धान्तों का अपलाप करना तथा तीर्थंकर भगवान् गुरु आदि की आज्ञा या अनुमति के विपरीत आचरण करना, इन सबको चोरी कहा है । यह द्रव्यचोरी नहीं, भावचोरी है । एक और पहलू से इस पर सोचा जाय तो यह प्रतीत हो जायगा कि वास्तव में ये बातें चोरी के अन्तर्गत हैं । चोरी का एक अर्थ दूसरे के अधिकारों का अपहरण करना भी होता है । यद्यपि दान में अन्तराय डालने वाले ने वर्तमान में किसी प्रकार का अपहरण नहीं किया, लेकिन भविष्य में जिसे वह वस्तु मिलने वाली थी, उसके अधिकार का अपहरण तो करता ही है। चूँकि साधु चोरी करने, कराने तथा अनुमोदन करने का सर्वथा त्याग करता है । इस दृष्टि से दान देते हुए को बहकाकर रोकने वाला साधु, भविष्य में जिसे दान मिलने वाला था, उसके अधिकार का अपहरण करने वाला होने से चोरी का भागी माना जाता है । अथवा दाना सुपात्र को दान देकर स्वर्गादि के कारणभूत, जिस अपूर्व पुण्य को प्राप्त करने वाला था, उसके
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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