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________________ ६५२ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र भावना, ४ भयमुक्तिरूप निर्भयताभावना या धैर्यभावना, और ५ हास्यत्यागरूप वचनसंयम-मौनभावना। उक्त पांच भावनाओं का उद्देश्य सत्यव्रत की पूर्णरूपेण रक्षा करना है, जिसके लिए शास्त्रकार कहते हैं—'तस्स इमा पंचभावणाओ परिरक्खणट्ठयाए' । इसका आशय यह है कि सत्यमहाव्रती साधु सब प्रकार से असत्य का त्यागी होता है, बारहव्रत या पांच अणुव्रत धारण करने वाला देईपरतिश्रावक स्थूल-असत्य का आंशिक त्यागी होता है तथा व्रतहीन सम्यक्त्वी या मार्गानुसारी भी नैतिकरूप से स्थूल असत्य का त्याग करते हैं। इन सब कोटि के असत्यत्यागियों के असत्यत्यागरूप व्रत और नियम की रक्षा के लिए ये ५ भावनाएँ बताई हैं। लेकिन इन भावनाओं का उद्देश्य तभी पूर्ण हो सकता है, जब इनका बार-बार मनोयोगपूर्वक चिन्तन और जीवन में प्रयोग किया जाय । क्योंकि भावना का अर्थ ही प्रत्येक अवस्था में निरन्तर पुनः पुनः चिन्तन करना है। मनोयोगपूर्वक जीवनपर्यन्त और निरन्तर इनका चिन्तन-मनननिदिध्यासन करने पर तथा तदनुसार प्रयोग–अमल करने पर आत्मा में पवित्र और उत्तम संस्कार बद्धमूल हो जाते हैं। सुदृढ़ संस्कारी साधक इतना वीर और पराक्रमी हो जाता है कि असत्य के बड़े से बड़े भय और लोभ के झंझावात से वह डिगता नहीं, कष्टों के दल के आगे वह झुकता नहीं, उपसर्गों और परिषहों की सेना के खिलाफ जूझता रहता है । देव. मानव या तिर्यञ्च कोई भी उसे सत्यव्रत से विचलित नहीं कर सकता। उसके सामने सत्य ध्रुवतारे की तरह चम्कता रहता है ; वह कदापि कैसी भी स्थिति में सत्य को अपने मन-मस्तिष्क से ओझल नहीं होने देता। इसलिए सत्यता और सरलता उस साधक के जीवन के अंग बन जाते हैं । वह सत्य में परिपक्व हो जाता है । उसके हाथ, पैर, आँख और मुख सत्य से इतने सध जाते हैं, कि उससे असत्य-आचरण की चेष्टा स्वप्न में भी नहीं हो सकती। हाथ-पैर ही क्या, शरीर के सभी अंगोपांग, मन और वाणी, बुद्धि और हृदय उसके आज्ञाधीन सेवक-से बन जाते हैं। वे सत्य के विरुद्ध जरा भी प्रवृत्ति नहीं कर सकते । इसी बात को शास्त्रकार मूलपाठ में द्योतित करते हैं- भाविओ भवति अंतरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो सूरो सच्चज्जवसंपन्नो ; इमेहिं पंचहिवि कारणेहि मणवयणकायपरिरक्खिएहि निच्चं आमरणंतं च एस जोगो णेयव्यो।' अनुचिन्त्यसमितिभावना का चिन्तन और प्रयोग-सत्यव्रत की इन पांच भावनाओं में से सर्वप्रथम अनुचिन्त्यसमितिभावना है। इसका अर्थ है - सत्य पर बार-बार चिन्तन करके भाषण में सम्यक् प्रवृत्ति करना। सत्यमहाव्रत ग्रहण कर लेने मात्र से जीवन में सत्य नहीं आ जाता। उसके पालन के लिए बार-बार सत्य के पहलुओं पर चिन्तन करना चाहिए ; यह विश्लेषण करना चाहिए कि असत्य कहाँ
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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