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________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र किसी प्रकार का छल, द्रोह, दम्भ आदि संयमविघातक कारण हो, वह सत्य वचन असत्य ही समझा जायगा । जैसे कि कहा है- "सच्चपि य संजमस्स उवरोहकारक न किं चि वत्तव्वं... "एवंविहं सच्चंपि न वत्तव्वं । जहाँ वृत्ति-प्रवृत्ति या सद्व्यहार अर्थ में सत्य प्रयुक्त होता है, वहां सत्य वचन के साथ-साथ तदनुसार आचरण होना चाहिए । जैसे कोई वचन देता है कि तुम्हारा अमुक कार्य कर दूंगा या अमुक प्रतिज्ञा या नियम लेता हूं, तो तदनुसार प्रवृत्ति, चेष्टा या आचरण भी होना चाहिए तभी वह सत्य कहलाएगा। सत्यहरिश्चन्द्र का सत्य इसी अर्थ में था कि उन्होंने जो वचन मुंह से कहा था, उसका तदनुसार पालन किया। इसी प्रकार जहां वचन के अलावा स्वर, आकृति, कृति, चेष्टा, लेखन आदि से भी वह सत्य वैसा ही प्रगट हो,तो वहां सत्य वृत्ति-प्रवृत्ति अर्थ में समझना चाहिए । मुह से यथार्थ बोलने पर भी यदि चेष्टा, कृति, आकृति, लेखन या स्वर और तरह का हो तो वह बोला हुआ सत्य भी असत्य ही समझा जाएगा। जैसे कि शास्त्रकार ने कहा है सच्चं जह भणियं तह य कम्मुणा होइ .. दुहओ उवयारमतिक्कंतं एवंविहं सच्चंपिनवत्त-वं'-- इसका तात्पर्य यह है कि जैसा कहा है,तदनुसार कर्म-क्रिया वगैरह से भी वह प्रगट हो, वह सत्य तभी सत्य है । जहाँ द्वयर्थक शब्द का प्रयोग हो या उपकार एवं सत्कार आदि का भी द्रव्य-भाव दोनों में से किसी भी एक से उल्लंघन हो, तो वहाँ वह असत्य है। ___इन तीनों अर्थों में जो सत्य बताया गया है. उसके पीछे मूल आशय प्राणिहित होना चाहिए । जैसा कि महाभारतकार ने कहा है --- यद्भूतहितमत्यन्तं तद्धि सत्यं मतं मम ।' अर्थात्-जिस बोलने, लिखने, सोचने, या किसी भी प्रकार की चेष्टा आदि करने में एकान्त प्राणिहित हो, वही सत्य माना गया है। सत्य का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ भी यही होता है—'सद्भ्यो हितम्' जो प्राणिमात्र के लिए हितकर हो, वह सत्य है। इसी का स्पष्टीकरण अर्धगाथा में इस प्रकार प्रगट किया गया है 'सच्चं हियं सयामिह संतो मुणओ गुणा पयत्था वा' अर्थात्- 'जो प्राणियों लिए हितकारक हो, वह सत्य है । इसी सत्शब्द में से तीन अर्थ और फलित होते हैंमुनि-संत, गुण और पदार्थ । जिससे उक्त तीनों का हित प्रगट होता हो,वही सत्य है।' तीनों की एकरूपता हो, वहीं सत्य है-सत्य के पूर्वोक्त अर्थों को देखते हुए निष्कर्ष यह निकलता है कि केवल वाणी से उच्चारण किया हुआ सत्य ही सत्य नहीं होता । वचन के साथ मन और काया की एकरूपता होनी चाहिए । मन से भी सत्य सोचे, वचन से भी सत्य बोले और काया से भी सत्य चेष्टा प्रगट करे, तभी सच्चे
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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