SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वास - निःश्वासमथान्यदायुः । दर्शते भगवद्भिरुक्तास्, २१ प्राणा तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥ अर्थात् – 'तीर्थंकरों ने प्राण १० प्रकार के कहे हैं— श्रोत्रेन्द्रिय, बलप्राण, चक्षुरिन्द्रिय बलप्राण, घ्राणेन्द्रिय बलप्राण, रसनेन्द्रिय-बलप्राण, स्पर्शनेन्द्रियबलप्राण, मनोबलप्राण, वचनबलप्राण, कायबलप्राण, श्वासोच्छ्वास- बलप्राण और आयुष्य बलप्राण । इन दसों में से किसी का भी वियोग करना हिंसा है ।' एक बात और स्पष्ट कर दूं- प्राणवध शब्द से सिर्फ प्राणों का वियोग या नाश करना अर्थ ही नहीं लेना चाहिए, अपितु दस प्राणों में से किसी भी प्राण को चोट पहुंचाना, हानि पहुँचाना, पीड़ा देना, डुबाना, जलाना, दबाना, विकास में रुकावट डालना, आपस में टकराना, फेंकना, पीटना, श्वास रोक देना, जान से मार डालना, बेहोश कर देना, दुःखित कर देना, हैरान-परेशान करना, भगाना, थकाना आदि सब प्राणघातक क्रियाएँ प्राणवध के अन्तर्गत आ जाती हैं । जे वि करेंति पावा - इस वाक्य से अनात्मवाद का खंडन करके आत्मा की सिद्धि की गई है । क्योंकि जो पापी आत्मा होगा, वही प्राणवधरूप आश्रव में प्रवृत्त होगा । धर्म-निष्ठ आत्मा या पुण्यशाली आत्मा इस आश्रव में प्रवृत्त होने से पहले विचार करेगा । क्योंकि चार्वाक दर्शन यह मानता है, कि शरीर या प्राण आदि जो कुछ भी यहाँ दिखाई देते हैं, वही आत्मा है, इसके सिवाय कोई आत्मा नहीं है । तथा इस शरीर और प्राण के राख हो जाने पर फिर आना-जाना नहीं होता, वह शरीर या प्राण पंचभूतों में ही मिल जाता हैं । परन्तु आत्मा नामक अलग तत्त्व न होता तो कोई भी व्यक्ति किसी की हिंसा बेखटके करता और उसे उस पाप के फलस्वरूप नरकादि गतियों में जाने का कोई खतरा नहीं रहता । परन्तु आत्मा शरीरादि से अलग है और वह नित्य है, इसलिए विविध योनियों में तथा अपने शुभा - शुभ कर्म के फलस्वरूप शुभाशुभ गतियों में जाती है । फलं देति — इस वाक्य से बौद्धदर्शन के क्षणिकवाद का खंडन करके जैन दर्शन के कर्मवाद की पुष्टि की गई है । क्योंकि आत्मा क्षण-क्षण में जदलने वाली हो तो पहले क्षण जिसने हिंसा की, वह आत्मा दूसरे क्षण नहीं रहेगी। दूसरे क्षण दूसरी आत्मा बन जाएगी । इसलिए अगर कोई कार्य उस आत्मा ने किया है, तो उसके क्षणविध्वंसी होने से कृतकर्म के फल का नाश हो जायगा, और जो नहीं किया है, वह उसके गले पड़ जाएगा । इसलिए क्षणिकवाद मानने पर कर्म और उसके फल की व्यवस्था नहीं होगी । हिंसा का स्वरूप पूर्वोक्त गाथा में वर्णनीय विषयों के वर्णन का वर्गीकरण करके उनका क्रम बताया
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy