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छठा अध्ययन : अहिंसा-संवर
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साधु का वर्तमान रूप ही उसका परिचय है। इससे अधिक प्रशंसात्मक परिचय तो वह देता है, जिसे बढ़िया पौष्टिक और स्वादिष्ट भोजन या कीमती वस्त्रादि की आकांक्षा हो। साधु को तो शरीर की गाड़ी चलाने के लिए यथालाभ भोजन लेना है। जैसे गाड़ी को ठीक ढंग से चलाने के लिए उसकी धुरी में तेल दिया जाता है,शरीर के घाव पर जैसे मरहम लगा दिया जाता है,वैसे साधु को भी शरीर चलाने के लिए थोड़ा-सा भोजन लेना है । उसे गृहस्थ से यह कहने की क्या जरूरत है कि 'मैं धनाढ्य घर का दीक्षित हुआ हूँ।' कदाचित् गृहस्थ साधु के गृहस्थाश्रमपक्षीय सम्बन्ध को जान भी जाए तो भी उस साधु को अनासक्तभाव धारण करना चाहिए । दाता यदि देने में प्रतिकूलता दिखाए, आनाकानी करे, अथवा अस्वादु आहार साधु को दे तो वह अपने चित्त में उसके प्रति द्वेष या दुर्भाव न आने दे । कदाचित् बहुत जगह घूमने पर भी नियमानुसार आहार न मिले, तो भी साधु मन में दीनता या हीनभावना न आने दे और न ऐसा मुर्शाया चेहरा बना ले, जिससे लोगों को उसे देख कर करुणा पैदा हो । एक दिन भोजन न मिला तो क्या हुआ ? साधु उपवास भी तो करता है । कदाचित् भिक्षाटन के समय कोई साधु का अपमान कर बैठे या अपशब्द कह दे तो भी मन में विषाद न आने दे। घूमते-घूमते काफी देर हो जाने पर भी पर्याप्त आहार न मिले या निर्दोष आहार जरा भी नहीं मिले तो साधु उसके कारण झुंझला कर हारे-थके निराश व्यक्ति की तरह न बैठ जाय, किन्तु उत्साहपूर्वक मन में थकान महसूस किए बिना पुरुषार्थ करता रहे। इतने पर भी न मिले या पर्याप्त आहार न मिले तो साधु की हानि नहीं। वह यही सोचे कि चलो, आज अनायास ही उपवास करके कर्मनिर्जरा करने का मौका मिल गया। अथवा यों सोचे कि आत्मा लो निराहारी है । आहार तो शरीर को चाहिए । और यह शरीर तो आहार करते हुए भी क्षीण हो जाता है। यह तो केवल संयम में सहायक है। इसलिए एक दिन इसे आहार न दिया जायगा तो इसका कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं । ऐसा समझ कर निर्दोष आहार की ही गवेषणा करे। भिक्षाचरी करते समय साधु के सामने यह लक्ष्य चमकता रहना चाहिए कि "मुझे बड़ी कठिनता से प्राप्त संयम के योगों को स्थिर रखने के लिए पुरुषार्थ करना है, अप्राप्त संयमधन की प्राप्ति के लिए उद्यम करना है, विनय तथा क्षमा आदि आत्मिक गुणों की प्रवृत्ति में जुटे रहना है।" इस प्रकार भिक्षाचरी करते समय साधु ऊँच, नीच. मध्यम सभी स्थिति के लोगों के यहां समभावपूर्वक जाय और कल्पनीय-एषणीय आहार समभाव से भिक्षा के रूप में ले कर अपने उपाश्रय (धर्मस्थान) में आ जाय ।
यहाँ तक शास्त्रकार ने शुद्ध भिक्षाचरी का तरीका बतलाया, अब आगे भिक्षाप्राप्त आहार के सेवन का तरीका बताया गया है। क्योंकि कई बार भिक्षा निर्दोष