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________________ छठा अध्ययन : अहिंसा-संवर ५६५ और कोमल रजोहरण से प्रमार्जन करना आवश्यक है । उन्हें उठाते और रखते समय भी कोई जीव न मर जाय, इसकी भी सावधानी रखनी चाहिए। इसी समिति की भावना के अन्तर्गत इस प्रकार की प्रवृत्ति की भावना भी आ जाती है कि साधु के मलमूत्र आदि शरीर के विकारों का विसर्जन भी उपयोगसहित होना चाहिए, ताकि किसी जीव की विराधना न हो जाय, यही पांचवीं आदाननिक्षेपसमितिभावना का स्वरूप है । समितिभावना का विशिष्ट चिन्तन, प्रयोग और फल - अहिंसामहाव्रत की सुरक्षा के लिए यह सबसे पहली भावना है । इस भावना के विशिष्ट चिन्तन और प्रयोग के लिए शास्त्रकार ने संकेत किया है- 'पढमं ठाणगमणगुणजोग दिट्ठीए ईरियवंदयावरेण पुप्फ परिवज्जिएण सम्मं सव्वपाण" लब्भा पावेउं ।' इसका भावार्थ यह है कि साधु सर्वप्रथम यह चिन्तन करे कि "मैं पंचमहाव्रती अहिंसक साधु हूं। अत: बैठने, उठने, सोने चलने आदि तमाम चेष्टाओं – चर्याओं को करते समय मेरे निमित्त से कोई भी जीव कुचला न जाय, किसी भी जीव को पीड़ा न हो, कोई भी जीव मुझ से भय न खाए, दुःखी न हो । जैसे मेरा अपना जीवन बहुमूल्य है, वैसे ही उनका भी अपना जीवन बहुमूल्य है। जैसे किसी के द्वारा मारे या सताये जाने पर मुझे दुःख होता है; वैसे ही वे भी मेरे द्वारा मारे या सताए जायेंगे तो उन्हें भी कष्ट होगा ।" इस प्रकार के चिन्तन के प्रकाश में वह अपनी प्रवृत्ति करे । रास्ते में चलते समय, बैठते समय या सोते समय वनस्पतिकाय से सम्बन्धित पत्रो, फल, फूल आदि बिखरे हुए हों तो उन्हें बचाते हुए चले । गमनागमन आदि चर्या करते समय साधु के सामने भगवान् महावीर के द्वारा उपदिष्ट अहिंसा के पालन का ही लक्ष्य हो, उसकी दृष्टि उस स्थल पर ही हो, जिस पर वह चर्या कर रहा है ; उसका हृदय सभी प्राणियों के प्रति आत्मौपम्यभाव और वात्सल्य से भरा हो, उसके हाथ, पैर, आँख, कान, जीभ आदि अवयव लक्ष्य के विपरीत गति न करें; उसके समक्ष यह सिद्धान्त स्पष्ट होना चाहिए कि मैं विश्व के प्राणिमात्र की रक्षा और दया के लिए साधु बना हूं। छोटे से छोटे कीड़े या वनस्पति आदि स्थावरजीव के प्रति भी उसके मन में उपेक्षा, तिरस्कार, निन्दा, घृणा या तुच्छता की दुर्भावना नहीं होनी चाहिए । इस प्रकार का चिन्तन और प्रयोग इस भावना के साथ होना चाहिए । " इस प्रकार से ईर्यासमितिभावना का चिन्तन एवं प्रयोग करने से साधु अहिंसा का पूर्णतः पालन करके अपनी अभीष्ट सिद्धि प्राप्त करता है । इसी बात को शास्त्रकार अपने शब्दों में कहते हैं - ' एवं इरियासमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा असबल..... भावणाए अहिंसओ, संजओ सुसाहू' । इसका आशय यह है कि पूर्वोक्त प्रकार से ईर्ष्यासमितिभावना के अनुसार चिन्तन और प्रयोग करने से साधु के अन्तःकरण में अहिंसा
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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