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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र आश्रव-आगमन से रहित, ( अकलुणो ) दयनीयता से रहित ( अकलुसो ) कलुषता से रहित (अच्छिद्दो) छिद्ररहित-अनाव (अपरिस्सावी) पापरूप जल के परिस्राव-भरने से दूर, (असंकिलिछो) मानसिक क्लेश से रहित, (सुद्धो) शुद्ध और (सव्वजिणमणुन्नातो) सभी जिनवरों द्वारा अनुज्ञात-अनुमत, (एस) यह (जोगो) योग-पंचभावनारूप व्यापार (यन्वो) धारण करना चाहिए। (एवं) इस प्रकार (फासियं) विधिपूर्वक समय पर स्वीकृत किया हुआ, (पालियं) पालन किया गया, (सोहियं) अतिचार से रहित होने से शोधित, अथवा शोभनीय सुहावना (तीरियं) भलीभांति अन्त तक पार लगाया हुआ (किट्टियं) कीर्तित--प्रशंसित या दूसरों को भी कहा गया (आराहियं) आराधित, (पढमं सवरदारं) पहला संवरद्वार (आणाते अणुपालियं भवति) वीतराग की आज्ञा से-उपदेश से अनुपालित (भवति) होता है । (एवं) इस प्रकार (नायमुणिणा) ज्ञातकुल में उत्पन्न हुए मुनि (भगवया) भगवान् महावीर स्वामी ने (सिद्धवरसासणं) सिद्धों की प्रधान आज्ञारूप (इणं) इस संवरद्वार को (पन्नवियं) सामान्यरूप से बताया है, (परूवियं) विविध नयों की अपेक्षा से भेद-प्रभेदों द्वारा इसका वर्णन किया है । यह (पसिद्ध) प्रसिद्ध है (सिद्ध) प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है, (आघवितं) जनता में इसकी अच्छी प्रतिष्ठा है, अथवा जनता के सामने इसे बारबार कहा है, इसके सम्बन्ध में देव, मनुष्य और असुरों के परिषद् में अच्छे ढंग से उपदेश दिया है यह (पसत्थं) मंगलरूप, (पढमसंवरदारं) पहला संवरद्वार (समत्त) समाप्त हुआ। (ति बेमि) ऐसा मैं—सुधर्मा स्वामी कहता हूँ।
मूलार्थ-प्रथम अहिंसाव्रत की ये निम्नोक्त पाँच भावनाएं हैं, जो हिंसा से विरमणरूप अहिंसा की सब ओर से सुरक्षा के लिए हैं। पहली ईर्यासमिति भावना है, जो इस प्रकार है-स्थान-ठहरने, व गमन करने में प्रवचनाराधनारूप गुण के योग से संलग्न तथा गाड़ी के जवे के प्रमाण चार हाथ आगे की भूमि पर पड़ने वाली दृष्टि से कीट, पतंग, त्रस और स्थावर प्राणियों की दया में तत्पर हमेशा फूल, फल, छाल, पत्ते, कंद, मूल, पानी, मिट्टी, बीज और हरितकाय का बचाव करते हुए सम्यक् प्रकार से गमनविचरण करना चाहिए । इस प्रकार ईर्यासमिति से चर्या करने वाले साधु को सचमुच किसी भी प्राणी की अवहेलना-उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, न निन्दा करनी चाहिए, न दूसरों के सामने गर्दा बुराई करनी चाहिए, न उनकी हिंसा करनी चाहिए, न उनके टुकड़े करने चाहिए