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________________ १२ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र बोलते, जिससे सरकार द्वारा कानूनन दण्डित हो, लोकव्यवहार में निन्दित हो, देश, जाति और जनता में परस्पर फूट और वैमनस्य पैदा हो जाए । मनुष्य की कुलीनता या महानता की परीक्षा उसके वचनों पर से हो जाती है । जिसका वचन सत्यगुण से युक्त होता है, वह मानव संसार में देवतुल्य माना जाता है । उसका निर्मल धवल यश संसार में फैल जाता है तथा उसके वचन से प्राणी अपने कल्याण की कामना करते हैं और वे उसके वचनामृत को उसी तरह. सुनने को लालायित रहते हैं, जिस तरह मेघगर्जना को सुनने के लिए मोर उत्सुक रहता है । जिन वचनों के बोलने से प्राणियों को पीड़ा पहुँचती है, वे भी असत्य के अन्तर्गत हैं । तत्त्वार्थ सूत्र में बताया है - 'असदभिधानमनृतम्' अर्थात् कषायवश प्राणियों को पीड़ा देने वाले असद् - अप्रशस्त वचन बोलना भी असत्य है । इसलिए कल्याणकारी पुरुष को सदा सत्य, हित, मित और प्रिय बोलना चाहिये । ऐसे सत्यभाषी नरश्रेष्ठ ही संसार में वन्दनीय, पूजनीय और स्वपर कल्याणकर्ता होता है । अदत्तादान - किसी की वस्तु उसकी अनुमति के वगैर या दिये बिना ग्रहण कर लेना अदत्तादान है । इसे लोक व्यवहार में चोरी कहते हैं । चोरी केवल दूसरे के अर्थ या पदार्थों की ही नहीं होती, अपितु नाम, अधिकार, उपयोग या भावों की भी होती है । चोरी करने वाला हमेशा भयभीत रहता है, क्योंकि उसे हर समय प्राण जाने की शंका चोरी करने से पहले और बाद में बनी रहती है । भय ही पापकर्म के बंध का कारण है । संसार में जितने भी पापकार्य हैं, सब में अन्दर ही अन्दर भय छिपा हुआ होता है । प्रारम्भ में जब मनुष्य पापकर्म करता है, तब आत्मा में एक प्रकार के अव्यक्त भय का संचार होता है। इसलिए किसी व्यक्ति की गिरी हुई पड़ी हुई, बिना दी हुई या अनुमति न दी हुई वस्तु - जिसके हम स्वामी न हों, कदापि ग्रहण नहीं करनी चाहिये । आज विश्व में जो अशान्ति मची हुई है, वह इसी ( अदत्तादान ) दोष का दुष्परिणाम है । निर्बल मनुष्य की वस्तु (सम्पत्ति या साधन ) सबल छीनना-झपटना और जबरन अपने अधिकार में कर लेना चाहता है, यही विश्व में विषमता, द्वन्द्व और कलह का कारण है, यही मुकद्दमेबाजी का कारण है । पहले और अब जितने भी कलह हुए हैं या हो रहे हैं, वे सब इसी पाप के कुफल हैं । यदि संसार वीतरागवचनामृत के अनुसार चलने लगे और इस आश्रव का त्याग करे तो विश्व में सर्वत्र शान्ति का साम्राज्य हो जाय, सभी सुख-चैन की बंसी बजाते हुए स्वपर कल्याण रत हो जाय । मगर यह सब अनुचित लोभ, अनीति, बेईमानी और धोखे - बाजी का त्याग करने पर ही हो सकता है ।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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