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________________ ४६६ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र होगा। परिग्रह पास में होने पर भी कई लोग असातावेदनीय कर्म के उदय से दुःखी दिखाई देते हैं और मुनि-श्रमण आदि के पास परिग्रह न होने पर भी वे वस्तुतः सुखी दिखाई देते हैं। इसलिए धनादि के वियोग- त्याग को दुःख का हेतु नहीं समझना चाहिए। 'अमुत्तो'- मुक्ति का अर्थ यहाँ निर्लोभता है। इस दृष्टि से अमुक्ति का अर्थ है-सलोभता । लोभ से मुक्ति तभी होती है, जब व्यक्ति वस्तुओं का उपभोग करने के बदले उपयोग करना सीख ले; आवश्यकता से अधिक एक भी चीज का संग्रह न करे, आवश्यकताओं की भी सीमा बांध। अतः जब तक लोभ से मुक्तिछुटकारा पाने का उपाय नहीं किया जाता; तब तक परिग्रह की वृत्ति मनुष्य को तंग करती रहती है । इसलिए अमुक्ति को परिग्रह की सहचारिणी कहें तो अनुचित नहीं होगा। 'तण्हा'-धन, सुख के साधन या सांसारिक पदार्थों की वाञ्छा या लालसा तृष्णा कहलाती है । तृष्णा मनुष्य को परिग्रह में प्रवृत्त करती है। तृष्णा न होती तो मनुष्य को परिग्रह में प्रवृत्त होने की आवश्यकता ही न रहती। तृष्णा-राक्षसी मनुष्य को प्रेरित करके धनादि पदार्थ जुटाने को विवश कर देती है। मनुष्य तृष्णा के पीछे बेतहाशा भागते-भागते बूढ़ा हो जाता है, लेकिन तृष्णा बूढ़ी नहीं होती; वह सदा जवान रहती है। तृष्णा से संतप्त प्राणी शान्ति पाने के लिए परिग्रह को शान्ति का कारण समझ कर उसमें प्रवृत्ति करता है। लेकिन इंधन से अग्नि के भड़कने के समान परिग्रहप्रवृत्ति से भी तृष्णा की आग और ज्यादा भड़कती जाती है, मनुष्य शान्ति के बदले और अधिक संताप में झुलस जाता है । किसी आचार्य ने ठीक ही कहा है 'रे धनेन्धनसभार प्रक्षिप्याऽशाहुताशने । ज्वलन्तं मन्यते म्रान्तः शान्तं सन्धुक्षणे क्षणे।" ___ अर्थात्—'अरे भव्यजीवो ! यह अज्ञानी मानव आशा-तृष्णा-रूपी आग में धनरूपी-इन्धन का ढेर डाल कर उसे प्रतिक्षण अधिकाधिक प्रज्वलित करता है और उसमें जलता हुआ अपने-आपको भ्रान्तिवश शान्त हुआ समझता है।' मतलब यह है कि तृष्णा–परिग्रह की वृद्धि होने पर बढ़ते हुए संताप को यह पामर जीव शान्ति और सुख समझता है । वास्तव में तृष्णा ही परिग्रह की जननी है। 'अणत्थको'-परमार्थदृष्टि से जो निरर्थक-निष्प्रयोजन हो, उसे अनर्थक कहते हैं । धन-धान्यादि जितने भी पदार्थ हैं, वे कुछ समय के लिए भले ही काल्पनिक सुख के कारण बन जाँय, लेकिन वह सुख वास्तविक नहीं होता। परिग्नह आत्मा के लिए तो किसी भी काम का नहीं हैं । शरीर के लिए भी क्षणिक सुख का कारण होता है।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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