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________________ श्री प्रश्न व्याकरण सूत्र अनर्थ होते हैं । अपने प्रिय से प्रिय व्यक्ति के साथ संघर्ष और वैरविरोध परिग्रह को ले कर हुआ करता है। अनेक शारीरिक और मानसिक दुःख इसी के निमित्त से हुआ करते हैं। 'बह-बंधण-मारण-सेहणाउ काओ परिग्गहे नत्थि । तं जइ परिग्गहुच्चिय जइधम्मो तो नणु पवंचो ॥ अर्थात्-मारना-पीटना, बाँधना, मार डालना, सजा देना इनमें से कौन-सी ऐसी पापक्रिया है,जो परिग्रह में नहीं है ? यदि इन सबको उपचार से परिग्रह मान लिया जाय तो समझ लो, शेष यतिधर्म (क्षमा आदि) इसी परिग्रहत्याग का ही विस्तार है।' दूसरी बात इससे आत्मा का कोई हित या अर्थ-प्रयोजन सिद्ध नहीं होता; उलटे यह आत्मगुणों का विघातक है, आत्मा के साथ पापकर्मों को चिपकाने वाला है और दुर्गति में ले जाने वाला है। इसलिए परिग्रह अनर्थकर है । उपर्युक्त सभी कारणों से परिग्रह अनर्थों का मूल होने से, इसे 'अनर्थ' कहा है तो कोई अनुचित नहीं। ___ 'संथवो'–संस्तव का अर्थ होता है—परिचय । और बार-बार किसी चीज का परिचय या संसर्ग मोह-ममता का कारण बन जाता है। जितना अधिक धन, धान्य, सुख-साधन, स्त्री-पुत्र आदि के साथ सम्पर्क बढ़ता जाता है; उतना ही अधिक. आसक्ति, मोह, जड़ता, ममता या लोलुपता बढ़ती जाती हैं । वस्तुतः परिग्रह आसक्ति के कारण होता है और संस्तव के कारण आसक्ति बढ़ती ही है। इसलिए संस्तव को परिग्रह का पर्यायवाची कहना ठीक ही है। 'अगत्ती' या 'अकीत्ति' - इच्छाओं का गोपन न करना, दबा कर न रखना, खुल्ली छोड़ देना, उन पर संयम या नियंत्रण न करना, अगुप्ति कहलाती है । जब मनुष्य इच्छाओं को दबाता नहीं या उन पर कोई नियन्त्रण नहीं करता, तब इच्छाएँ उसे व्यथित, चिन्तित और उद्विग्न कर देती हैं। इच्छाएँ बढ़ाने से सुख बढ़ने की भ्रान्ति का शिकार होकर मनुष्य इच्छाओं को बढ़ाता जाता है । आखिरकार उसे इच्छाओं, आशाओं या कामनाओं का दास-गुलाम बनना पड़ता है। वह अपने जीवन का बादशाह नहीं बन सकता; वह इच्छाओं-चाहों के इशारे पर नाचता रहता है। परिग्रह अपने आप में इच्छाओं का अगोपन ही तो है। इसलिए अगुप्ति को परिग्रह की बहन कह दिया जाय तो कोई आपत्ति नहीं।। इसका एक यह अर्थ भी ध्वनित होता है कि परिग्रह के लिए मनुष्य शरीर, मन और इन्द्रियों की प्रवृत्ति को अधिकाधिक तेज करता जाता है, वह प्रवृत्ति की धुन में बह कर असंयम के कार्यों में भी प्रवृत्त हो जाता है। असंयम की प्रवृत्ति से आत्मा, मन, शरीर और इन्द्रियों को न बचाना-गोपन न करना भी अगुप्ति है।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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