________________
पंचम अध्ययन : परिग्रह आश्रव
वास्तव में 'संसारमूलमारम्भास्तेषां हेतुः परिग्रहः इस सूक्ति के अनुसार संसार के मूल कारण आरम्भ - — हिंसाजनक कार्य — हैं और उनका कारण परिग्रह है ।
परिग्रह का लक्षण -- परिग्रह का व्युत्पत्तिजन्य अर्थ इस प्रकार है - 'परिसामस्त्येन ग्रहणं परिग्रहणं, मूर्च्छावशेन परिगृह्यते, आत्मभावेन समेति बुद्ध्या गृह्यते इति परिग्रहः' किसी चीज का समस्तरूप से ग्रहण करना, अथवा मूर्च्छावश जिसे ग्रहण किया जाता है या अपनेपन – मेरेपन के भाव से 'मेरी है', इस बुद्धि से जिसे ग्रहण किया जाय, उसे परिग्रह कहते हैं ।
वास्तव में परिग्रह उसी का नाम है, जिसे ममत्त्वबुद्धि से ग्रहण किया जाय । आत्मा ज्यों-ज्यों ममत्त्वबुद्धि से किसी चीज को ग्रहण करता जाता है, त्यों-त्यों वह भारी होता चला जाता है । जैसे भारी चीज हमेशा नीचे जाती है, वैसे ही आत्मा परिग्रह के पाप से भारी हो जाने के कारण नीचे से नीचे नरक में जाती है । अपनी अज्ञानता, मोह या ममता के वशीभूत हो कर आत्मा ज्यों-ज्यों किसी वस्तु या दुर्भाव को हितकारी समझ कर ग्रहण करती जाती है, त्यों-त्यों वह उसके चक्कर में फँस कर अपने ज्ञान, सुख आदि स्वभाव को खो बैठती है । जैसे मकड़ी अपने मुंह में से तन्तु निकालती है और उसी के जाल में स्वयं फंस कर अपना सर्वस्व - प्राण तक गंवा देती है, वैसे ही आत्मा भी अपने ही ममत्त्वजाल में स्वयं फंस कर अपना सर्वस्व गँवा देती है ।
बताया गया है - ' मूर्च्छा
४४६
यही कारण है कि परिग्रह का लक्षण तत्त्वार्थ सूत्र में परिग्रहः' अर्थात् - मूर्च्छा - ममता - आसक्ति ही परिग्रह है ।
प्रश्न यह होता है कि यदि परिग्रह का लक्षण ममता-मूर्च्छा ही है, तब शास्त्र - कार ने धन, धान्य आदि को परिग्रह क्यों कहा? और आगम में इनके त्याग को परिग्रह - त्याग कैसे बताया ?
इसके उत्तर में यही कहना है कि यदि ग्रहण करना ही परिग्रह होता तो मनुष्य कई ऐसी चीजें ग्रहण करता है, जो धर्मपालन, परोपकार या स्वपर - कल्याण के लिए आवश्यक होती हैं । जैसे साधु वर्ग के लिए वस्त्र - पात्र आदि धर्मोपकरण रखना, धर्म स्थान में रहना, किसी गांव या नगर में आना और ठहरना, आहार- पानी लेना और उनका सेवन करना, ऊपर से गिरते हुए किसी बच्चे को बचाने के हेतु निःस्वार्थ भाव से झेल लेना, श्रावक-श्राविकाओं को जैनधर्म के संस्कारों व धर्माचरण से ओतप्रोत रखने के लिए संगठनबद्ध करना, शरीर धारण करना, विभिन्न शुभक्रियाओं के कारण भी कर्मों का ग्रहण करना, इत्यादि बातें ग्रहण की जाती हैं । इसलिए ये चीजें भी परिग्रह के अन्तर्गत आ जानी चाहिए । परन्तु दशवैकालिक सूत्र में इन या ऐसी ही अन्य चीजों को परिग्रह नहीं बताया गया है । वहाँ इसका स्पष्टीकरण किया गया है
२६