SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 414
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य आश्रव ३६६ हैं । कुंडल उनके मुख को प्रकाशित करते हैं । उनके नेत्र श्वेतकमल के समान विकसित होते हैं । उनके कंठ और वक्षस्थल पर श्रीवत्स नामक उत्तम चिह्न होता है । वे महायशस्वी होते हैं। सभी ऋतुओं के सुगन्धित पुष्पों से रचित लम्बी देदीप्यमान एवं विकसित अनूठी वनमाला उनके वक्षस्थल पर सुशोभित होती है । मांगलिक और सुन्दर विभिन्न ८०० लक्षणों से उनके अंगोपांग शोभा पाते हैं । मतवाले श्रेष्ठ हाथियों की तरह उनकी गति - चाल बड़ी ही ललित (सुन्दर) और विलसित होती है । उनकी कमर में कटिसूत्र ( करधनी) होता है, और वे नीले तथा पीले रेशमी वस्त्र पहनते हैं । वे प्रखर तेज से देदीप्यमान होते हैं । उनकी आवाज शरत्काल के नए मेघ की गर्जना के समान गंभीर, मधुर और स्निग्ध होती है । वे मनुष्यों में सिंह के समान पराक्रमी होते हैं। उनकी सिंह के समान पराक्रम व गति होती है, सिंह के समान बड़ े-बड़े पराक्रमी राजाओं के जीवन को उन्होंने अस्त कर दिया है । वे सौम्य होते हैं। द्वारावती - द्वारिका नगरी के निवासियों के लिए वे पूर्णचंद्रमा के समान होते हैं । उनमें पूर्वजन्म में किए हुए तप का प्रभाव होता है । वे पूर्वकालकृत पुण्यों के उदय से संचित इन्द्रिय-सुख वाले होते हैं । वे कई सौ वर्ष की 'आयु वाले होते हैं । वे प्रधान देशों की श्रेष्ठ पत्नियों के साथ ऐशआराम करते हैं और एक से एक बढ़कर इन्द्रियजन्य स्पर्श, रस, रूप और गन्ध-स्वरूप विषयों का उपभोग करते हैं । परन्तु अन्त में, वे भी उन कामभोगों से तृप्त न हो कर एक दिन मृत्यु की गोद में चले जाते हैं । 1 व्याख्या पूर्वं सूत्रपाठ में चक्रवर्तियों के वैभव, सुख के साधन और अन्त में कामभोगों से अतृप्ति की हालत में ही उनकी मृत्यु आदि का शास्त्रकार ने स्पष्ट वर्णन किया है । अब उससे आगे बलदेवों और वासुदेवों की ऋद्धि, समृद्धि, ठाठबाठ और भोगविलासों का वर्णन करते हुए बताया है कि वे भी इन कामभोगों से अतृप्त हो कर ही इस संसार से एक दिन बिदा हो जाते | वर्णन काफी स्पष्ट है । पदार्थान्वय और मूलार्थ में हम इन सबका अर्थ स्पष्ट कर आए हैं; फिर भी कुछ पदों पर विश्लेषण करना आवश्यक है । 'भुज्जो भुज्जो बलदेव - वासुदेवा य' - यहाँ 'भुज्जो भुज्जो' (भूयो भूयः) शब्द ' तथा ' अर्थ में प्रयुक्त किया गया है । ' जैसे चक्रवर्ती कामभोगों से संतुष्ट न हुए २४
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy