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________________ चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रय ३६७ सुन्दर युवतियों के वे हृदयवल्लभ थे । नाना प्रकार की मणियों, सोने, रत्न, मोती, मूगों तथा धन-धान्यों के संचयरूप लक्ष्मी से जिनके खजाने भरे रहते थे । वे हजारों घोड़ों, हाथियों और रथों के स्वामी थे। वे हजारों सुन्दर गाँवों, नगरों, खानों, खेड़ों, कस्बों, मडबों, द्रोण-मुखों बंदरगाहों, पत्तनोंमंडियों, आश्रमों, सुरक्षित किलों (संवाहों से युक्त अर्द्ध भरतक्षेत्र के स्वामी थे, जिनमें लोग स्वस्थ, स्थिर, शान्त और प्रमुदित रहते थे, जहां विविध प्रकार के अनाज पैदा करने वाली उपजाऊ भूमि थी। वह बड़े-बड़े सरोवरों, नदियों, छोटे-छोटे तालाबों, पर्वतों, वनों, दम्पत्तियों के क्रीड़ा करने के योग्य लतागृहों से युक्त बगीचों, फुलवाड़ियों और उद्यानों से सुशोभित था। वह दक्षिण की ओर का अर्द्ध भरत वैताढ्य पर्वत से विभक्त एवं लवणसमुद्र से घिरा हुआ तथा छही ऋतुओं के कार्यों से क्रमशः प्राप्त होने वाले अत्यन्त सुख से युक्त था । वे धैर्यवान और कीर्तिमान पुरुष थे। उनमें प्रवाहरूप से निरन्तर बल पाया जाता था। वे अत्यन्त बलवान थे। दूसरों के बलों से वे कभी मात नहीं खाते थे । वे अपराजित माने जाने वाले शत्र ओं का भी मानमर्दन करने वाले और हजारों शत्रुओं का अभिमान चूर-चूर करने वाले थे। वे दयालु, मात्सर्य-रहित यानी परगुणग्राही, चंचलता से रहित, अकारण क्रोध न करने वाले, परिमित और मृदुभाषी तथा मुस्कान के साथ गंभीर और मधुर वचन बोलने वाले थे। वे पास आए हुए व्यक्ति के प्रति वत्सल थे तथा शरणागत को शरण देने वाले थे। सामुद्रिक शास्त्र में बताये हुए शरीर के उत्तमोत्तम लक्षणों (चिह्नों) और तिल, मस्से आदि व्यञ्जनों के गुणों से युक्त थे। उनके शरीर के समस्त अंग और उपांग मान एवं उन्मान प्रमाण से परिपूर्ण थे। उनकी आकृति चन्द्रमा के समान सौम्य थी, उनका दर्शन बड़ा ही मनोरम और सुहावना लगता था। वे अपराध को नहीं सह सकते थे अथवा कार्य में आलस्य नहीं करते थे। वे अपनी प्रचंड या प्रकांड दण्डवित का प्रसार प्रचार करने में बड़े गंभीर दिखाई देते थे । बलदेव की ध्वजा ताड़वक्ष के चिह्न से तथा कृष्ण की ऊंची फहराती हुई ध्वजा गरुड़ के चिह्न से अंकित थी। उन्होंने गर्जते हए बलशाली अत्यन्त घमंडी मौष्टिक और चाणूर नामक मल्लों को खत्म कर दिया था। रिष्ट नामक दुष्ट बैल का भी संहार कर दिया था। वे सिंह के मुह में हाथ डाल कर उसे चीर डालते थे। उन्होंने गर्वोद्धत भयंकर कालीयनाग के अभिमान को नष्ट कर दिया था
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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