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________________ चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रव अब्रह्मचर्य का स्वरूप तीसरे अध्ययन में तृतीय अधर्म-अदत्तादान आश्रव का वर्णन किया गया , था। अब इस चौथे अध्ययन में शास्त्रकार चतुर्थ अधर्म- अब्रह्मचर्य आश्रव का वर्णन करते हैं । प्रायः यह देखा जाता है कि जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों और मन पर संयम नहीं रखता ; इन्द्रियविषयों में अत्यधिक आसक्त रहता है ; अब्रह्मचर्य में प्रवृत्त होता है ; वही प्रायः चोरी किया करता है। इसलिए प्रसंगवश अदत्तादान के पश्चात् अब्रह्मचर्य का निरूपण किया जा रहा है। शास्त्रकार की प्रतिपादनशैली यह रही है कि किसी भी वस्तु का पूर्ण निरूपण करने के लिए वे स्वरूप, नाम आदि ५ द्वारों के जरिये वर्णन करते हैं। अतः यहाँ भी पहले की भांति अब्रह्मचर्य का वर्णन करते समय शास्त्रकार पहले उसके स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं मूलपाठ __जंबू ! अभं च चउत्थं सदेवमणुयासुरस्स लोयस्स पत्थणिज्जं, पंकपणयपासजालभूयं, थीपुरिसनपुसवेदचिधं, तवसंजमबंभचेरविग्धं, भेदायतणबहुपमादमूलं, कायरकापुरिससेवियं, सुयणजणवज्जणिज्जं, उड्ढनरयतिरिय-तिलोक्कपइट्ठाणं, जरामरणरोगसोगबहुलं, वहबंधविघात-दुविघायं, सणचरित्तमोहस्स हेउभूयं,चिरपरिचिय'मणुगयं दुरंतं च उत्थं अधम्मदारं ॥सू०१३॥ संस्कृतच्छाया जम्बू ! अब्रह्म च चतुर्थ सदेवमनुजासुरस्य लोकस्य प्रार्थनीयम्, १ कहीं-कहीं इसके बदले 'चिरपरिगयमणाइकालसेवियं' पाठ भी मिलता है। -संपादक २१
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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